शनिवार, 3 सितंबर 2011

मुबारकें

  तेरे दिल में कोई और घर कर  गया
  तुझसे कैसे अब मैं मुबारकें लूँ ?
  कभी मंजिल हमारी एक थी
    आज  राहें  जुदा हैं

तू रह अपने हमसफ़र के  साये में 
मैं भी अब तनहा एक सफ़र में हूँ /

तू मुबारकों में रह  आमीन
मैं अभी  बद्ददुआवों  के  सायों में हूँ/

तू  चलाचल  अपनी  आरजूओं की मिन्नत में
 ख्वाहिशों की बंदगी  कर
मैं अभी जिंदगी  वीराने के बसर में हूँ /

7 टिप्‍पणियां:

  1. खूबसूरत नज़्म . आभार .नई सुबह जरुर आएगी .

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  2. कृपया टिपण्णी करने के लिए वर्ड वेरिफिकेसन हटा दे .

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  3. दिल को छूती रचना.. बहुत अच्छा लगा.
    धन्यवाद.

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  4. हम तो मुबारकें दे ही सकते हैं इस बेहतरीन भावपूर्ण नज़्म के लिए।

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  5. आप सभी को बहुत - बहुत शुक्रिया नज़म को पसंद करने के लिए /

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  6. किसी भी नज़्म को उसके कद्रदान ही खूबसूरत बनाते हैं /

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