मंगलवार, 4 जनवरी 2011

सरकार की अड़ियल जिद

    जे  पी  सी की मांग पर जिस तरीके से  सरकार अड़ियल रवैया अपना रही है वह सरकार की मंशा  पर सवाल उठाती  है  आखिरकार सरकार इन घोटालो की जाँच करने के लिये जे पी सी की मांग को स्वीकार क्यों नहीं कर लेती ?  इस मांग को नहीं मानकर सरकार आख़िरकार समूचे विपक्ष को एकजुट और  शक्तिशाली  कर रही है  सिर्फ यही नहीं इस मुद्दे  को केंद्र करके संसद का पूरा शीतकालीन सत्र हंगामे की भेंट चढ़ चुका है  कभी कभी लगता है कि भारत की सरकार और विपक्ष  दोनों ही इस मुद्दे पर गंभीर नहीं हैं  और दोनों ही इस मुद्दे पर राजनीति कर रहे हैं /  हम सब  भ्रस्टाचार पर बात तो करते हैं  पर इसे लेकर हमारी भूमिका बहुत उदासीन होती है/ सरकार और विपक्ष की इस नकारात्मक भूमिका पर हम प्रतिवाद क्यों नहीं करते ?

रविवार, 2 जनवरी 2011

स्त्रीवादी साहित्य के मायने

आज सुबह अखबार में " प्रभा खेतान का स्त्रीवादी साहित्य सौंदर्य " नामक लेख पढ़ा  जिसे डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी  ने लिखा है. दोस्तों आज उसी लेख को आपसे साझा करना चाहती हूँ.
 वैसे लेख तो बहुत बढ़िया है  पर लेख को पढने के दौरान मन में कुछ सवाल  उठते  हैं.लेख में लेखक का यह मानना है कि प्रभा खेतान का आत्मकथा  ' अन्या से अनन्या ' एक अर्थ में न्याय की तलाश है /  हममे से अधिकांश  लोगो ने इस आत्मकथा को पढ़ा होगा. मेरा मन यह सवाल करता है   कि प्रभा खेतान  अपनी आत्मकथा लिखकर किससे न्याय पाने की उम्मीद   कर रहीं थी ? क्या स्त्रिओं द्वारा अपनी आत्मकथा लिखने की पीछे न्याय पाने का एकमात्र मकसद  होता है  या कुछ और? जो स्त्रियाँ  आत्मकथा लिखती हैं  क्या वे सब न्याय पाने की आशा में लिखती हैं ?  स्त्रीवाद का लक्ष्य यदि न्याय पाना है तो प्रभा खेतान को क्या सचमुच न्याय मिला ?


उन्होंने दूसरी बात  यह लिखी है  कि किसी प्रेम सम्बन्ध में प्रेम तो औरत ही करती है, पुरुष तो प्रेम का भोग  करता है  पुरुष में देने का भाव नहीं होता, वह सिर्फ स्त्री से पाना चाहता है   इस बात को पूरी तरह स्वीकार नहीं जा सकता / ऐसी कोई बात नहीं है कि सभी स्त्रियाँ  प्रेम करती हैं  और सारे पुरुष मात्र प्रेम का भोग करते हैं / यह  चीजो का सरलीकरण   हैं/  आज की तारीख में ऐसी  स्त्रिओं की कमी नहीं है जो प्रेम में सिर्फ पाना ही चाहती हैं   प्रेम में देने के अधिकार पर मात्र औरतो का  जन्मजात  कब्ज़ा नहीं है  कुछ औरते तो मात्र लेने के लिये ही प्रेम का ढोंग करती है  फिर भी  इस लेख में कुछ बातें तो बिल्कुल सठीक  रूप में पकड़ी गईं हैं.  मसलन  प्रेम का मतलब कैर्रिएर बना देना , रोजगार दिला देना  , व्यापार करा देना देना नहीं है बल्कि ये तो ध्यान हटाने वाली रण नीतियाँ  हैं , प्रेम से पलायन करने वाली चालबाजियां  हैं प्रेम गहना, कैर्रिएर , आत्मा निर्भरता   अदि नहीं है   पर बहुत बारीकी से यदि देखा जाये  तो आजकल  इन सब चीजो को ही प्रेम कहा जा रहा है और इस व्यापार में पढ़े-लिखे और तथाकथित  बुद्धिजीवी  स्त्री और पुरुष दोनों शामिल हैं.

स्त्रीवादी साहित्य  के नाम पर जो  अपने दुखो और अपने साथ हुए धोखाधड़ी  को महिमामंडित करने की जो   कोशिश  प्राये: होती रही है    वहां न्याय  की तलाश तो नहीं की जाती है / मुझे नहीं लगता की  स्त्री जब अपनी आत्मा कथा लिखती है  तो ये सब सोचकर लिखती है