सोमवार, 22 दिसंबर 2014

बूढा , पृथ्वी और चाँद

दूर एक टापू पर एक बूढा रहा करता था / उसका नाम ........  शायद उस टापू को भी नहीं पता था / वह  सारा दिन बैठकर समुद्र की लहरों को गिना करता था / और अपने संदूक में रखी उस डायरी में कुछ लिखता था /  समुन्द्र की सुन्दर मछलियाँ जानती थीं  कि वह  बूढा उस डायरी  से बहुत प्यार करता है / उस डायरी में उसकी स्मृतियाँ साँस लेती हैं / इन स्मृतियों के सहारे ही वह उन नक्षत्रों को देखा करता था जो रात - भर धूसर आसमान  में पैदल चला करते थे / /पता नहीं ये नक्षत्र शून्य आकाश में मुँह अंधेरे किस राह चल पड़ते हैं और इनके चलने से  पृथ्वी के उस आखिरी  कोने में बैठी वह  स्त्री अपनी बकरियों के साथ घास के मैदानों की ओर चल पड़ती है / उसे मैदान में एक थका हुआ गधा मिलता है जो सदियों से कोई बोझ  उठाए रम्भाये जा रहा है / उसका रम्भाना देखकर इतिहास एक टीले  पर चला जाता है / टीले  पर एक बुढ़िया  पौराणिक कथाओं की झोली से कुछ कथाएं बीन  रही है या कहें रुई की तरह धुन रही है प र उसके आस- पास कहीं भी बच्चे नहीं हैं / बच्चे पृथ्वी से लुफ्त हो रहें हैं / उनके लिए न कोई बगीचा बचा न चिड़ियों के झुण्ड / कहाँ गए ये बच्चे ? प्रश्न  बेचैन है उत्तर कहीं छिप गया है / आपने कभी आँख - मिचौनी का खेल खेला है / सुना है जो खेलते हैं उन्हें बड़ा मजा आता है / दस छिपते हैं एक ढूंढता है /



                     
                       







     पृथ्वी रेगिस्तान के उस रेतीले कुएँ से एक घड़ा मीठा पानी लेकर लौट रही है जिसके बारे में कहा और सुना जाता रहा कि वह कुँआ पानी के बदले हंसी के कुछ खनखनाते सिक्के मांगता है / उस कुएँ में एक जादूगरनी रहती है जो रात भर रेगिस्तान में रेत  के टीले बनाती  है  । उन टीलों से आधी रात में जुगनू निकलते हैं / उनकी फुकफुकाती रोशनी में आकाश नहा  लेता है और अपने काले -गीले लिबास को दूर कहीं एक पेड़ की फुनगी पर छोड़ आता है / भोर होने पर एक  कौआ उस लिबास को पहनकर उड़ जाता है और जा पहुंचता है उस टापू पर जहाँ वह  बूढा अपनी डायरी में एक राजकुमारी  की कथा लिख रहा होता  है / राजकुमारी ....... जिसे होना चाहिए था किसी राजमहल में अपने राजकुमार के साथ / पर राजकुमारी जंगलों में है / जंगल। …… जो मौन हैं  बीहड़ हैं पर ये  राजकुमारी  का साथ नहीं छोड़ते / राजकुमारी  के आँसू  से जंगल दहकता है / बूढा कहानी लिखते जाता है पर वह जादूगरनी नहीं मिलती जिसने राजकुमारी को इन जंगलों में बांध दिया है /


         इतिहास टीले  से उत्तर आता है और चला जाता है किताब के पन्नों में थोड़ा सुस्ताने के लिए / किताबें भी आल्मारिओं में कैद हैं / देर रात जब बूढा चौकीदार अपनी थकी टांगों से थकान उतारता है तब किताबें निकलती हैं अपनी कब्रगाहों से / कुछ देर उनके  पन्ने  फड़फड़ाते रहते हैं खुली हवा में / फिर मशगूल हो जाती हैं किताबें अपनी बतकहीं में /

                                        बूढा,   चाँद को अपनी कहानी का राजदार बनाता  है  और चाँद इंतज़ार में है कि  कब राजकुमारी  हँसेगी / राजकुमारी  के हंसने से जंगल में बसंत आएगा / बसंत के आने से पृथ्वी पर फूल खिलेंगे , तितलियाँ आएंगी और बूढा ...... अपनी डायरी के साथ समुद्र की सुन्दर मछलियों को कोई नई कथा सुनाएगा /


रविवार, 21 दिसंबर 2014

ऐ.. जिंदगी....

ले - देकर एक जिंदगी हिस्से आई है और उसमें भी कुछ ऐसे लोग सौगात में मिले हैं जिन्होंने जिंदगी में दुःख और वीरानेपन के आलावा  कुछ नहीं दिया/  लिखनेवाले ने क्या - क्या लिख दिया जिंदगी के पन्नों पर / कभी - कभी सोचती हूँ कि  इस जिंदगी का क्या अर्थ है , इसके क्या मायने हैं / इसको समझ सकने में असमर्थ हूँ / एक सिरे को सुलझाती हूँ तो दूसरा सिरा  उलझ जाता है / अजीब - सी उलझन में उलझती जाती है यह जिंदगी / कभी खीझती हूँ इस  पर / फिर थक - हार कर इसकी हर सजा स्वीकार कर लेती हूँ / पढ़ने - लिखने   के क्रम में यही सीखा कि  नियति  कुछ नहीं होती आपके करम सब कुछ होते हैं / पर जैसे - जैसे जिंदगी बड़ी होती गई वह मुझे सिखाती गई कि  नियति से आप लड़ नहीं सकते / उसे हर मोड़ पर स्वीकारना पड़ता है / कर्म से सब कुछ जीता नहीं जा सकता /  इन बातों से आप सोच सकते हैं कि मैं  निराश हूँ। . आप सही हैं / मैं सचमुच निराश हो गई हूँ/  मुझे बड़ी- बड़ी बातें अब नहीं सुहाती / मेरे हिस्से जटिल जिंदगी आई है और। …। मेरे लिए कोई रास्ता रौशनी नहीं लेकर आता / ऐ.. जिंदगी तुझसे अब कोई चाह  नहीं /

बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

 दीपावली रोशन कर देने वाला त्यौहार है  पर दिल के अँधेरे इन दीयों की रौशनी से कहाँ मिटते हैं //// /
 घिरा है घना  अन्धकार। .... दीये  तो जलाने  ही पड़ेंगे /

शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

मेरी स्मृतियों की  सुरंग से निकलती है वह कोयले से चलनेवाली ,  काली -सी भारी- भरकम इंजन के  साथ नौ  डिब्बों  वाली रेलगाड़ी / रुकती है वह उस छोटे - से स्टेशन पर , जो इतिहास में बकुलहाँ स्टेशन के नाम पर दर्ज है / इसका नाम बकुलहाँ  क्यों पड़ा , इसके बारे में तथ्य तो नहीं मिलता  पर बड़े - बुजुर्गों के  मुँह से सुना है कि इस इलाक़े में सफेद बगुले बहुतायत में पाए जाते थे  इसीलिए इसका नाम   बकुलहाँ पड गया / वैसे इस इलाक़े में बबूल के पेड़ भी बहुत   हैं / यहाँ एक सिंगल लाइन हुआ करती थी अब तो डबल लाइन है / यह लाइन छपरा और बलिया को जोड़ती थी /  मेरी स्मृतियों का एक अहम हिस्सा मेरे इस पैतृक स्टेशन से जुड़ा हुआ है / मैं अपनी आजी के साथ इस स्टेशन से मिलने बार - बार आती थी / इसके पीछे बहुत बड़ी वजह थी  / और वह वजह थी इस स्टेशन के बगल से बहती हुई वह सरयू नदी / बचपन में हम उसे गंगा कहते थे / बचपन में  हमारे लिए सब नदियाँ गंगा ही थीं /  हमारी आजी बहुत व्रत और उपवास करती थीं / केवल आजी ही नहीं , बल्कि गाँव की बाकी औरतें भी उपवास और व्रत रखती थी / उपवास और व्रत के दौरान सब औरतें गंगा नहाने जाती थी / हमारे यहाँ नदियों और औरतों में  एक गहरा और आत्मीय  रिश्ता   होता था और है / हमारी अपनी पुरखन औरतें अपना सुख - दुख नदियों से बाँटा करती थीं /  उनके अधिकांश गीत नदियों को संबोधित करते हुए हैं / गंगा को पियरी धोती चढ़ाते  हुए औरतें उलासित होकर गीत गति थीं / बेटे - बेटी के  व्याह का न्योता देती थी और गुहार लगती थीं क़ि हे गंगा मैया ..अ  ईओ   हो /

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

अँधेरा है पर उम्मीद भी

 मेरे समय के शब्द
 जोखिम  उठाने से डरते हैं
एक घना अंधकार
धीरे - धीरे  उत्तर आया है
हमारी  जिह्वा/  पर
और
हम लगातार
एक लय  में सिर  हिलाते
कोरस में
कुछ  बुदबुदाते
चल पड़े हैं
उस  ईश्वर की शरण में
जो  हमारी ही तरह
असमर्थ है
बेबस है
निरीह है
वह भी जोखिम उठाने से डरता है /

सुना है
आजकल
वह भी
ताकतवरों  की ही सुनता  है
उनक हाँ में हाँ मिलाता  है
और
उनकी  प्रार्थनाओं पर
मौन होकर मुस्कुराता है /


ताकतवर। ...
और ताकतवर होते जा रहे हैं
बढ़ रही है उनकी ताकत
झुक रहे हैं सिर
उनके सज़दे  में
कट  रहीं हैं जीभें
नापी जा रही हैं गर्दनें /

पर यही  पूरा सच नहीं है    
एक सच और है
दुनिया का   सौंदर्य
बदलता है
उम्मीद से /
और मेरे पास
अँधेरा भी है
और उम्मीद भी /

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

पहाड़ भी रोते हैं।

 पहाड़ भी  रोते  हैं 
एक दूसरे से गले मिलकर 
जब कोई स्त्री 
अपने पति को खत लिखती है 
और फिर चुपचाप 
एक आईने में 
अपना चेहरा देखती है 
आईना बताता है 
समय की रफ़्तार 
और चुपके से 
स्त्री को धकेल देता है 
पहाड़ों के पास। … 

पहाड़ … 
खड़े हैं चुप्पी साधे  
उनके पास 
रोने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है।

पहाड़  भी रोते हैं।  





मंगलवार, 22 जुलाई 2014

यह कौन - सी जगह है दोस्तों। .... जहाँ अकेलेपन के  अलावा कुछ नहीं /  अकेलेपन को साथ देने के लिए ये पहाड़ हैं जो  न जाने कितनी सदियों से सर्द में लिपटे मौन  खड़े हैं / इनके पास न मेरे अकेलेपन का कोई हल है न  मेरे सवालों का कोई जवाब नहीं /

इस बिराने में कुछ अच्छा नहीं लग रहा है / वक्त है कि  मानों कहीं ठहर - सा गया है / न पढ़ने में मन लग रहा है न कुछ सार्थक लिखने में / इस वीराने की रखवाली कर रही हूँ मैं /  अजीब - सा दौर है / आछे दिन पाछे गए /

मंगलवार, 6 मई 2014

ভালো আছ তো ?

ও  আমার মনে মানুষ। ..
ভালো আছ তো ?

আমি যে বিসর্জন দিলম সব মন প্রাণ তোমার প্রেমে / 
হারালাম নিজেকে তোমার  খোজে 



কথাযে যে  গেলে  তুমি 
সব বন্ধন ছিন্ন করে   ? 
কিছুই  চাই না
 কিছুই চাই না 
আমার মনে মানুষ 
তুমি সুধু ভালো থেক 
মন প্রাণ দিয়ে
 ভালো থেক ভালো থেক / 

रविवार, 13 अप्रैल 2014

माई री। ... मोरा माइका छूटा जाए।

  माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए। …

माटी की देह
माटी में मिल जाए
गगन घटा में
मोरा पाखी उड़ जाए

 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।






आन देस में
मन न लागे
मेढ बार - बार
टूट  जाए

 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।

संगी साथी सब बिराने
रैन  बसेरा का
न कोई
ठौर - ठिकाना /

  माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।







 अपयश  देत
कलंक लगावे
ता - ता करके ताली
बजावे


 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।


माया  टूटी
काया छूटी 
टूटे सारे नेह के बंध 

 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।

वह आदमी

 समय के घोड़े बड़ी तेजी से भागे जा रहे थे
पता नहीं इन घोड़ों की लगाम
किनके हाथों में थी।







और
पृथ्वी
उदास थी
आज वह घूमते - घूमते उस आदमी से टकरा गई थी
जो अपने लुप्त इतिहास के सीलन भरे कैद से
ऊब कर
समुन्द्र के किनारे बैठा लहरें गिन  रहा था  /



वह खुश था
अपनी मुक्ति पर ....
उसके चेहरे पर
हँस रही थीं  रेत की मछलियाँ। ।

सागर की गोद में
उतरता सूरज
आश्वस्त था
वह आदमी हार नहीं मानेगा

भले ही
अदृश्य ताकतें
दिशाएं तय कर रहीं थीं
और समूची सदी
मौन होकर
एक  युग के अंत के
घोषणापत्र  पर हस्ताक्षर
 कर रही थी /


पर
दूर  कहीं किसी ने बंसी की धुन छेड़ी  थी









 चौंका था समूचा जंगल
और
दौड़ पड़ा था वह आदमी
उस मृगराज के पास
जो सदियों से
चाँद की दूधिया मुस्कान  में
अपनी ही मादक परिमल से
उन्मादित हो
जंगलों में पुकारा करता था
   अपनी प्रिया को /




इतिहास अपने पीले पन्नों में
न जाने
कितनी मौन आवाजों को
दबाये
एक सदी की यात्रा पर चला गया था
और वह आदमी
अभी भी
नुकक्ड़ पर बैठा
अपनी बेटी के लिए
एक सपना बुन  रहा है /

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था / जाँ निसार अख़्तर


ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था/

मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था/


शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था/

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था/

पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था/

शनिवार, 29 मार्च 2014

भोला - सा तर्क

 सफ़ेद  चील       झपट्टा    मारती  है
        और           लेकर        उड़      जाती है
            अपने          पंजों   में
                              एक         मासूम      सा      चूजा     ....... /


  दूर  कहीं  एक    सूखा  पत्ता
दरख्त  से  टूटता  है
और  चीख  उठती   है
  टिटहरी। ....


मिथ  से निकल आते हैं राम
अपनी  मर्यादा के साथ
और सीता को
फिर से याद आता है
अपना निर्वासन। .




सदियों से
एक  भोला - सा तर्क
हत्या       करता   रहा    है
   एक  निष्पाप
   जीवन  का । ....
     


.... ??

घना अँधेरा
लाल लकीरें

काली परछाइयाँ
नकाब पोश   चेहरे


ठूँठ  खड़ा वह पेड़
उतरता पतझड़
बारूद सी हवा
नसों को चीरती




तड़पता पक्षी
टूट ती  साँस
सूना  आकाश
धीमा फैलता जहर
उतरता गहन अंधकार
डूबता मन पारावार  /

रविवार, 16 मार्च 2014

संतरे रंग वाली मेरी प्रेमिका

मैं संतरे रंग वाली अपनी  प्रेमिका को
 पृथ्वी के आखिरी छोर पर बने
उस घर  में छोड  आया था
जिसकी दीवारें सफ़ेद थीं
और
छत कत्थई - हरे रंगों में
टंगा  रहता था
उदास आकाश को थामे /


और भूल गया था उसे
जैसे भूल जाते हैं हम
अपना चश्मा
या
अपनी छड़ी
कहीं रखकर
और चाह कर भी
याद नहीं रख पाते
कहाँ रखा था हमने। …

और यूँ ही
धीरे - धीरे
हम भूलने लगते हैं
कब हमने खुलकर हंसा था
कब हमने प्यार किया था
केवल प्यार के लिए /

कब देखा था
चीटियों को पहाड़ लांघते हुए
और
कब देखा था
तुतलाती बोली में
किसी बच्चे को
मम माँ बोलते हुए /








कब देखा था
एक मुट्ठी  सुख के लिए
अपनी पत्नी का
अपने पास आ बैठना /

सब कुछ भूलते हुए
हम  अपने - अपने  अरण्य  में पहुँचते हैं
जहाँ रह जाती हैं
केवल स्मृतियाँ
प्रेम की , अपने अकेलेपन की /

सोचता हूँ
इन बेहद एकांत क्षणों में
जब पृथ्वी अपनी परिक्रमा से
ऊब कर
थक कर
उस पेड़ के फुनगियों पर
जब उतरती होगी
तब मेरी संतरे रंग वाली  प्रेमिका
शायद मेरी बेटी को
अपनी गोद में उठाये
लोरी सुना रही होगी
और मेरी बेटी
मचल जाती होगी
चाँद को मुट्ठी में लेने के लिए
तब
मेरी संतरे रंग वाली  प्रेमिका
चाँद बन जाती होगी /

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

मेरा प्रेम उदास खड़ा था /

बरसों  बाद
बड़ी लंबी  नींद से जगा था मैं
 जाने कितने रतजगे के बाद
ऐसी नींद सोया था /
घर चुपचाप
मेरे बिस्तर पर तना
मेरे जागने   का इंतजार कर रहा था

मेरी किताबें
अलसाई -सी
अलमारियों में क़ैद थीं
और वे भी इंतजार में थीं ....
अपने पढ़े जाने की /







अच्छा लगा था ....
धूप का यूँ दबे  पाँव आना
और ...
हौले से एक मीठा चुम्बन

मेरे गालों पर दे जाना।
पर यह कौन है
जो मेरे सिरहाने खड़ा है
और उदास भी है /







तनिक ठहरकर
आँखों ने पहचानने की कोशिश की
मन ने तस्सली दिया
यह मेरा अपना ही है
और कोई नहीं
मेरे सिरहाने
मेरा प्रेम उदास खड़ा था /

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

मेरी बहस जारी है ....

दरख़्त   अंधेरे में  मौन खड़े थे
किसी बात को लेकर
शायद
 वे  लंबी बहस के बाद
सुस्ता रहे थे
या
उदास थे
या विचार  मग्न थे
कह नहीं सकता
क्यूँ कि
मैं भी एक लंबी बहस के बाद 
बेहद अकेला था / 

बहस ..... 
मैं घंटों बहस करता था 
बरसते पानी पर 
गुम होते मासूम बच्चों पर 
लुप्त होते बाघों पर
कटते  जंगलों पर  /

ईमानदारी , भ्रष्‍टाचार , देशसमाज , मान -प्रतिष्ठा 
 जाने कितने भारी - भरकम 
शब्दों से मैं रोज खेलता /
मैं इन शब्दों में 
अपने आपको छुपाता
कहीं  कहीं 
ये मेरे लिए 
मेरे जीने का उपक्रम थे /




बहस के बाद 
जब मैं बेहद एकांत हो जाता 
तब लौटता 
अपने आप के पास 
जहाँ मैं 
एक निरीह बच्चे की तरह 
सुबक कर रोता /
और अपनी ग़लतियों के लिए 
उससे माफी माँगता 
जो अब 
मुझे माफ़ करके जा चुकी थी  / 




मेरी बहस जारी है ....
इन दरखतों की तरह 
मैं भी अपने अंधेरे से लड़ रहा हूँ ..../




गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

मेरी बेटी .....




मेरी छोटी - सी गुड़िया 
तुझे मेरा ढेर - सारा प्यार 
और एक गुज़ारिश 
अगले जनम 
मेरी गोद में खिलना ...../

इस जनम ....
अपनी माँ को 
हो सके तो माफ़ करना ....
तेरी माँ हार गई है 
अपने प्रेम में .../
अपने -पराए 
मानसम्मान 
की लाज में 
मेरी बेटी .
तेरी माँ हार गई है /


तेरे लिए फिर मैं  उंगी 
धारण  करूँगी 
जल , आकाश और धरती 
ताकि दे सकूँ तुझे  मैं 
नया प्राण , नया जीवन
और एक प्यारी - सी हँसी  /

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

आँसू की एक बूँद

एक दिन 
आँसू  की एक बूँद 
अचानक 
खिलखिला पड़ी ......

पूछने पर बताया ..
अब 
मैं 
किसी की आँखों में 
नहीं रहती .....


मैने भी हँसना सीख लिया है ..../ 

शनिवार, 25 जनवरी 2014

उदासी की शामें बड़ी लंबी हो रही हैं .....

उदासी की  वह  शाम बड़ी लंबी थी
जब सागर अपनी लहरों को रेत
पर धीमे से छोड़ आया था ....../
आकाश  भी एक सिरे पर
थोड़ा अनमना - सा
मुँह लटकाए
कोई पुरानी कहानी  पढ़ रहा था
और
चाँद अभी गुम सुम - सा बैठा
किसी क़िस्से की आस लिए
मेरे इंतजार में था ...../

मैं अभी -अभी लौटा था
उस  पृथ्वी से मिलकर
जो बरसों से किसी की
तलाश में
अपनी ही  धुन में
समय की परिक्रमा कर रही  थी 
और समय ....
 जाने किस मोड़ पर
मुड़कर
इतिहास के गलियारों में
बेचैन आत्माओं  की  तरह
भटक रहा था   /

मैं भी भटकता रहा
उस  सुख के कतरे के लिए
जो कपूर की तरह
मेरी हथेलियों से उड़ गया था /

अब मेरी झोली में
 कोई किस्सा था
  किसी के नाम कोई चिट्ठी
और  कोई उम्मीद की  लोरी /

 बन्जारे  की तरह
 कंधों पर मैं 
अपना दुख लादे
 आज सागरआकाशचाँद ,   पृथ्वी और समय  से
 विदा ले रहा हूँ
क्यूँ कि
उदासी  की शामें
आज कल बड़ी लंबी हो रही हैं /