मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

बंद की राजनीति बंद हो !

बंद ... बंद ..... कल फिर से एक बंद का चेहरा बंगाल को देखना पड़ा /  पता नहीं  बंगाल कब इस बंद के कल्चर से उबरेगा ? यहाँ बंद के नाम पर जिस प्रकार की राजनीति की जाती है वह अपने आप में बेहद खतरनाक भी है और बेहद उबाऊ भी है / हड़ताल  और बंद के जरिए पता नहीं किन मुद्दों  को सुलझाया  जाता है  , यह मुझे आज तक  समझ में  नहीं आया है /  ममता की सरकार ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना दिया  और सरकार की तरफ से जो कदम उठाने चाहिए थे उसने उठाया /सरकारी  गाड़ियाँ दौड़तीं रहीं वीरान सड़कों पर / रेल गाड़ियाँ पटरिओं पर समय पर चलती रहीं / पर बंगाल की जनता  सड़कों पर नहीं निकली क्योंकि वह  बंद  को एक छुट्टी के तौर पर लेती है / जो लोग सड़कों पर दिखे या अपने - अपने  दफ्तरों  में  दिखे , वे सभी सरकारी कर्मचारी थे जिनमें ९०% अपनी सर्विसे या नौकरी बचाने आये थे  क्योंकि सरकार की तरफ से बाकायदा धमकी दी गई थी या कड़ा निर्देश दिया गया था कि जो नहीं आयेंगे उन्हें देखा जायेगा / यह सरकार की एक सफल  रण नीति थी जो कारगर भी सिद्ध हुई /
एक सवाल यह भी उठता है कि आने वाले दिनों में हमें अपने विरोध और मांगों के लिए बंद के अलावा अन्य  विकल्पों  की तलाश किस दिशा में करनी होगी ? अब सारे राजनीतिक दलों को इस दिशा में अपने सरे मतविरोधों को दरकिनार करके सोचना पड़ेगा  /

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

मुक्ति 

उसने मुझसे  कहा-
मैं तुम्हें  मुक्त करती हूँ
अपने रिश्तों से ,
अपनी  चिंताओं  से
अपने प्यार से /

सोचता हूँ
मुक्त करना
क्या सचमुच मुक्त करना होता है ?
kabhi  मुक्तिबोध ने कहा था
मुक्ति कभी अकेले की नहीं होती /
 इसलिए कहाँ  हो पाते  हैं  हम मुक्त ?

हम- तुम एक दूसरे से
अलग होकर
अलग -अलग   दिशाओं  में
मुक्ति की तलाश करते रहे
और
एक दूसरे को मुक्त करने का
स्वांग  भरते रहे /
पर जितना भी स्वांग  भरे
मुक्त होना संभव  नहीं है
क्योंकि
रिश्तों से, चिंताओं से , प्यार से
मुक्त होना
शायद  हमारे मरने  की
निशानी होगी /

मुक्ति

उसने मुझसे  कहा-
मैं तुम्हें  मुक्त करती हूँ
अपने रिश्तों से ,
अपनी  चिंताओं  से
अपने प्यार से /

सोचता हूँ
मुक्त करना
क्या सचमुच मुक्त करना होता है ?
लाभी मुक्तिबोध ने कहा था
मुक्ति कभी अकेले की नहीं होती /
 इसलिए कहाँ  हो पाते  हैं  हम मुक्त ?

हम- तुम एक दूसरे से
अलग होकर
अलग -अलग   दिशाओं  में
मुक्ति की तलाश करते रहे
और
एक दूसरे को मुक्त करने का
स्वांग  भरते रहे /
पर जितना भी स्वांग  भरे
मुक्त होना संभव  नहीं है
क्योंकि
रिश्तों से, चिंताओं से , प्यार से
मुक्त होना
शायद  हमारे मरने  की
निशानी होगी /

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

कविता पढ़ते हुए

न जाने क्यूँ मैं कविता पढ़ते हुए 
उदास हो जाता हूँ ?
कविता की दुनिया में 
मेरे हिस्से का दुःख 
अक्सर खड़ा मिल जाता है /
अपने सन्नाटे से बचने के लिए 
मैं कविता की दुनिया में दाखिल 
होता हूँ पर वहां वह सन्नाटा 
भी अकेलेपन की चादर  ओढ़े 
खड़ा रहता है मेरे इंतज़ार में /
पता नहीं कविता में इतना दुःख 
किसने लाकर चुपके से रख दिया है 
और अकेलापन   लुकाछिपी 
खेलते हुए आ दुबका है 
कविता की  ओट में किसी  बच्चे  की तरह/
कभी हमने रचा था कविता को 
अपने दुःख से बचने के लिए 
सन्नाटे के बीहड़पन से 
उबरने के लिए 
पर पता नहीं क्यों ?
मुझे लगता है
 शायद दुःख और सन्नाटे से 
बचना मनुष्य की सबसे 
नासमझ चेष्टा है/ 

अधेड़ होती स्त्री

अधेड़ होती स्त्री 
अब अपने बारे में ज्यादा नहीं सोचती 
सोचना उसने अब बंद कर दिया है /
चुपचाप धीमे - धीमे वह 
सबकुछ स्वीकारती चली जा रही है 
जानती है वह
 कि अब वह धीरे- धीरे चुक रही है /
अब वह अपने बारे में ज्यादा नहीं सोचती  
सोचना उसने अब बंद कर दिया है /
खुला रहता है उसके घर का दरवाजा 
पर बंद रहता है उसके मन का किवाड़ 
उसे पता है  कि
लोग भी अब उसके बारे में नहीं सोचते /
वह कटती जाती है अपने आस- पास से 
अधेड़ होती स्त्री 
घिरती जाती है 
एक सन्नाटे में 
जो उसका अपना होकर भी 
उसका नहीं होता/
वह बिनती रहती है 
कुछ लम्हों को , कुछ पलों को 
स्मृतियों की पुरानी पड़ती जा रही कोटर से
कुछ चेहरों को झाड़ती-   पोंछती    रहती है 
वापस सहेज कर रखने के लिए /
अधेड़ होती स्त्री 
अब अपने बारे में ज्यादा नहीं सोचती /