शनिवार, 18 दिसंबर 2010

छात्र राजनीति के नाम पर रक्तपात का दौर

   पश्चिम बंगाल में जैसे - जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आ रही है वैसे - वैसे यहाँ का  माहौल   का तापमान बढ़ रहा है इस तापमान की आंच  से छात्र भी नहीं बच  paa  रहे हैं बंगाल में छात्र राजनीति के नाम पर जो चल रहा है उसे  सभ्य व् सुसंस्कृत समाज में स्वीकार नहीं जा सकता / यह  कैसी  राजनीति है जो हिंसा व् रक्तपात के जरिये  अपना भविष्य   तय करेगी / छात्र राजनीति करने के नाम पर आपस में एक दूसरे के खून के pyase  बन रहे हैं -  --इसे क्या चुपचाप स्वीकार जा सकता है? इस संदर्भ में राज्यपाल  नारायणा की चिंता वाजिब है  उन्होंने एकदम सही चिंता व्यक्त की है कि छात्र राजनीति के नाम पर हिंसा का खुला व् बर्बर प्रदर्शन सभ्य समाज के लिये शर्मनाक है/ राजनीति के नाम पर चल रहे रक्तपात को रोकने के लिये सभी को आगे आना पड़ेगा/ हमारा बहुत सीधा - सा सवाल है कि  आखिर कब तक छात्र राजनीति के नाम पर अपनी पढाई- likhaii छोडकर राजनीतिक दलों के मोहरे बने रहेंगे / मैं यह नहीं कहती कि छात्र राजनीति से दूर रहें /  बल्कि मेरा यह मानना है कि छात्रों को बड़ी संख्या में राजनीति में आना  चाहिए ताकि समाज और देश को छात्र शक्ति से एक नई   दिशा मिले और देश के राजनीति में जो सड़ांध आ गई है उसे छात्र शक्ति दूर कर सकें पर यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि छात्र राजनीति  अवश्य  करें पर स्वस्थ राजनीति न कि राजनीतिक मतविरोध के चलते एक दूसरे की हत्या करें , एक दूसरे पर जानलेवा हमला करें / मैं ऐसी राजनीति का पुरजोर विरोध करती हूँ  जो हमारें  युवा ताकत को अंधी खाई की तरफ धकेल रहा है /     छात्र  हमारे समाज की ताकत हैं और हम इस ताकत का  दुरुप्रयोग    होता हुआ देख रहे हैं अभी हाल में कॉलेज व् विश्वविद्यालयओं  में छात्रों के बीच जिस प्रकार की विश्रिन्खालता व् अनुशासनहीनता   बढ़ी है उसी के चलते  जब वे राजनीति के छेत्र में उतरते  हैं तो कॉलेज व् विश्वविद्यालय को  रणछेत्र  बना देते हैं पर यह सोचने वाली बात है कि इस रणछेत्र  में बलि किसकी ली जा रही है ? -  निसंदेह छात्रों की / क्यों छात्रों में राजनीतिक मतान्तर के चलते इतना आक्रोश बढ़ा है ?   इस पर भी मनन करना चाहिए / क्या हम सभी  का दायित्वा नहीं बनता कि  अब हमें चुप नहीं बैठना चाहिए / सिर्फ हमें ही क्यों बल्कि सभी राजनीतिक दलों को अपने विरोध को दरकिनार करके आगे आना पड़ेगा / उन्हें निर्णय करना होगा कि अब वे छात्रों को स्वस्थ राजनीति करने के लिये प्रेरित करेंगे /   आखिर खूनी राजनीति के नाम पर किसको क्या हासिल होगा ? समझ में नहीं आता/ इस खूनी राजनीति में सबकुछ खोना ही खोना है /  अब नहीं चेते तो कब चेतेंगे ?  यहाँ सिर्फ एक के चेतने से काम नहीं चलेगा सबको हाथ से हाथ मिलाकर उठना  और चलना पड़ेगा  क्योकि कल हमारी बारी भी हो सकती है /

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

भाषा आन्दोलन : नव राष्ट्र का जन्म - डॉ. शंकर तिवारी (५)

                             पाकिस्तानी हुकमरान  पूर्वी पाकिस्तान को न  स्वायत्तता   देना चाहते  थे और न उनकी भाषा को सरकारी स्वीकृति जिसके परिमाणस्वरुप अब यह आन्दोलन सड़क पर उतर चुका था/ इसका चरम  रूप उस दिन दिखाई पड़ा जब  ढाका विश्वविद्यालय    के छात्रों द्वारा इस आन्दोलन के समर्थन में निकाले गए जुलूस  पर  पुलिस द्वारा गोली से फायरिंग की गई / यह दिन २१ फरवरी १९५२ था / भाषा का यह आन्दोलन बंगाली जाति के आत्मसम्मान  का प्रतीक था और यह दिन जहाँ एक तरफ शोक व् दुःख का दिन था तो दूसरी तरफ बलिदान  व् गौरव का भी दिन था/ बाँग्ला भाषा के सामान के लिये चार युवक्  गोली खाकर शहीद   हो गए थे / पूरा ढाका शहर  इन चार युवकों - सलाम, बरकत, रफीक और जबबार  के  शहीदी रक्त से लाल हो गया था/ अपनी भाषा के लिये अपने जीवन  को उत्सर्ग कर देना - यकीनन गर्व का विषय था , है और रहेगा/

 अब आन्दोलन का रूख बदल चुका था सिर्फ अपनी भाषा ही बल्कि अब अपने लिये एक नए  राष्ट्र की मांग भी उठने लगी / पश्चिम पाकिस्तान के अत्याचार से मुक्त होने का समय आ चुका था/ चार भाषा प्रेमिओं  का बलिद्दन एक चिंगारी के रूप में सुलगकर क्रांति की बहुत बड़ी लौ बन चुकी थी/ अब आन्दोलन की धार को   कुंद नहीं किया जा सकता/ अंततः १९७१ में यह मुक्ति-पर्व बांग्लादेश के जन्म के साथ संपन्न हुआ/ यह विश्व  इतिहास में एक नजर विहीन  घटना थी / साथ ही बांग्लादेश का जन्म उन लोगों के लिये करारा सबक था जो यह मानकर चल रहे थे कि धर्म के आधार पर विश्व के सभी मुसलमान एक हैं, उनके सांसारिक हित-अहित एक हैं, उनकी बोलचाल, भाषा , तहजीब सब एक जैसा है/ असल में भाषा का सम्बन्ध किसी धर्म से नहीं होता है बल्कि भाषा जातीयता का प्रतीक होती है/ भाषाई अस्मिता के लिये किया गया यह आन्दोलन  विश्व के हर भाषा-प्रेमी को  सदप्रेरित करता है और यह रौशनी देता है कि जब तक  भाषाएँ  जिन्दा रहेंगी तब तक हम जिन्दा रहेंगे / 

भाषा आन्दोलन : नव राष्ट्र का जन्म -- डॉ. शंकर तिवारी ( 4)

अब यह आन्दोलन थमने वाला नहीं था / ११ मार्च, १९४८ को सारे पूर्वी पाकिस्तान में आम हड़ताल  बुलाई गई/ जगह -जगह  जुलूस  निकले गए / नारे  दिए गए /


इसी  हड़ताल में पुलिस ने भी अपनी बर्बरता  का परिचय  दिया /   आन्दोलनकारियों   और भाषा प्रेमियों पर   लाठीचारज  कार्य गया/ इस आन्दोलन की तीब्रता को कम करने के लिये पूर्वी पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नाजिमुदीन  ने ढाका के असेम्बली में अधिवेशन के दौरान  बाँग्ला को सरकारी भाषा और शिक्षा का माध्यम बनाने का  आश्वासन दिया/ इसके बाद  असेम्बली में ६ अप्रैल. १९४८ को इसके लिये एक प्रस्ताव फिर से लाया गया पर स्थित्ति  वही   ढाक के तीन पात/ प्रस्ताव का फिर से विरोध हुआ/ इधर छात्रों और नवयुवकों में  आक्रोश  बढ़ता ही जा रहा था/   भौगोलिक दृष्टि से पूर्व पाकिस्तान और पश्चिम पाकिस्तान में हजारों किलोमीटर की दूरी थी/ उनके बीच में संपर्क के लिये समुन्द्र पथ और आकाश -पथ के अलावा कोई राष्ट नहीं था / पश्चिम पाकिस्तान का ही पूरे  पाकिस्तान पर दबदबा था/ पश्चिम पाकिस्तान वाले पूर्वी पाकिस्तान  को अपना उपनिवेश  समझते थे पूर्वी पाकिस्तान में कच्चे माल का उत्पादन होता था और पश्चिम पाकिस्तान के कारखानों में बाज़ार की जरुरत के मुताबिक उत्पादन होता था इस स्थिति  पर सुहरावर्दी साहेब मजाक में हमेशा कहा करते थे -' The common bondage between east and west pakistan is P.I.A and myself'  दरअसल ' मुस्लिम -मुस्लिम भाई- भाई' - इस नारे के सिवाय पूर्वी और  पश्चिम पाकिस्तान में कोई सेतुबंधन नहीं था/ पूर्वी पाकिस्तान का एक तो शोषण और दूसरा उनकी भाषा की उपेक्षा - पूर्वी पाकिस्तान को  पश्चिम पाकिस्तान से अलग व् स्वतंत्र होने का वाजिब कारण था /

  

भाषा आन्दोलन : नव राष्ट्र का जन्म -- डॉ. शंकर तिवारी ( 3)

   बाँग्ला को सरकारी भाषा का दर्जा दिलाने के प्रस्ताव के  विफल होते ही दूसरे दिन यानी २६ फ़रवरी ,१९४८ को पूर्वी  पाकिस्तान में छात्र -हड़ताल बुलाई गई/ छात्रों ने स्कूल ,कॉलेज,विश्वविद्यालयओं  में होने वाली  क्लासों    का बहिष्कार किया/ जुलूस  में शामिल हुए / अपनी भाषा के समर्थन में नारें  दिए गए / छात्रों का नेतृत्व  कर रहे थे - डॉ. मुहम्मद शाहिद्दुल्लाह / छात्र  नेताओं  में शेख मुजर्र्बिर रहमान , शम्सुल्हाक शौकत  अली , रणन  दासगुप्ता  आदि / इनमें से कुछेक को आन्दोलन करने के जुर्म में जेल में डाल दिया गया था/ भाषा पर मर- मिटने वालों की  तादाद लगातार बढती जा रही थी क्योंकि भाषा केवल ह्रदय के  भावों या आवेग  को ही व्यक्त  नहीं करती बल्कि वह  मनुष्य   के  जातीयता  बोध की भी परिचयक होती है . भाषा जातीयता के बंधन को मजबूत करती है /

भाषा आन्दोलन : नव राष्ट्र का जन्म -- डॉ. शंकर तिवारी ( २)

    १४ अगस्त ,१९४७ में पाकिस्तान  के जन्म के बाद ही पूर्वी  पाकिस्तान की जनता में रोष शुरु हो गया था जब उन्हे  पता चला कि पाकिस्तानी सरकार इस मामले में कट्टर   नीति  अपनाने जा रही है / पाकिस्तान के संस्थापक और प्रथम गवर्नेर  जनरल  मिस्टर . जिन्ना ने आजादी के बाद ही ढाका के ऐतिहासिक   रेसकोर्स   मैदान  में आयोजित विशाल  जनसभा को संबोधित करते हुए यह उदघोषित किया - "urdu and only urdu shall be the state language of pakistan" ऐसी   उदघोषण   से लाजिमी  है कि पूर्वी पाकिस्तान की  बहुसंख्यक   जनता के माथे पर चिंता की   लकीरें पड़नी  ही थी / इसके खिलाफ  अब जनता को कमर कसना था / सबसे पहले सन १९४७ के दिसम्बर  महीने में ' राष्ट्र भाषा संग्राम परिषद् ' का गठन हुआ / अपनी भाषा की अस्मिता के लिये आन्दोलन की रुपरेखा बनने लगी थी / पाकिस्तान के निर्माण के छे महीने बाद पाकिस्तानी असेम्बली के प्रथम अधिवेशन  की बैठक २३ फ़रवरी ,१९४८ को आरंभ  हुई / इसी अधिवेशन में पूर्वी पाकिस्तान के प्रतिनिधि वीरेन्द्रनाथ  दत्त ने एक प्रस्ताव पेश किया - उर्दू व् अंग्रेजी के साथ बाँग्ला भाषा को  भी सरकारी राजकाज की भाषा घोषित किया जाये / तत्कालीन  प्रधानमंत्री  लियाकत  अली इस प्रस्ताव पर काफी क्षब्ध हुए थे / उन्हें  यह भ्रम था कि इससे  पाकिस्तानी जनता के बीच असंतोष पैदा होगा/ वे यह भूल गए थे कि पूर्वी पाकिस्तान की जनता हिन्दू और मुसलमान होते हुए भी भाषाई दृष्टिकोण  से बाँग्ला भाषा की पक्षधर   थी / आंकड़ों के आधार पर सन १९५१ में बोलचाल की भाषा बाँग्ला थी/

                   वीरेन्द्रनाथ  दत्त  का स्पष्ट तर्क था कि केवल  उर्दू व् अंग्रेजी के प्रयोग से पूर्वी पाकिस्तान की जनता को बेहद  मुश्किलातों का सामना करना पड़ेगा / एक साधाराण    किसान  म्नीअओएर्दर मनीओडर  फार्म पर अंकित भाषा को कैसे समझ पायेगा ? जमीन  बेचने व् खरीदने के क्रम में  स्टांप पेपर  पर कितने रुपए की राशि लिखी हुई है ? - यह समझना  मुश्किल होगा / जनता के मन में यह सवाल  बेचैनी  पैदा किए हुए था कि अंग्रेजी को  राजभाषा का अधिकार मिल गया  लेकिन ४ करोड  चालीस लाख  लोगो की  मातृभाषा  बाँग्ला को राजभाषा  के अधिकार से वंचित क्यों कर दिया गया ?
 यदपि वीरेन्द्रनाथ के प्रस्ताव के समर्थन में दो अन्य सदस्यों ने भी  सहमति दर्ज की थी / भूपेंद्र नाथ दत्त  ने इस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा था -   ' ' urban is not the language of any of the provinces constituting the dominion of pakistan.It is the language of the upper few of western pakistan.This opposition to the amendment proves an effort, a determined effort on the part of the upper few of western pakistan at dominatng the state of pakistan.This is certainly not a tendency towards democracy.It is tendency towards domination of the upper few of a particular region of the state."

पर इसके बावजूद २५ फ़रवरी ,१९४८ को राष्ट्रीय असेम्बली में यह प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया /इस प्रस्ताव के खिलाफ मुस्लिम लीग  के सदस्यों  ने राय दी  और यह प्रस्ताव ख़ारिज हो गया/ पूर्वी पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ख्वाजा नाजिम्मुद्दीन  जो ढाका के नवाब  परिवार के उर्दू भाषी संतान थे, ने कहा था - ' पाकिस्तान  के विभिन्न क्षत्रों में संपर्क भाषा के रूप में उर्दू का कोई विकल्प नहीं है/" उर्दू का समर्थन और बाँग्ला को नजरअन्दाज करना -  - यहीं से शुरु हुआ भाषाई अस्मिता का आन्दोलन जिसकी परिणती  के रूप में पाकिस्तान का एक और बंटवारा हुआ और बांग्लादेश अस्तित्व में आया / धर्म के आधार  पर दो मुल्कों का गठन -- कितना असंगत  और तार्किकता से परे था, बांग्लादेश के निर्माण ने सिद्ध कर दिया /

भाषा आन्दोलन : नव राष्ट्र का जन्म - डॉ. शंकर तिवारी

 समाज और भाषा का सम्बन्ध अटूट  होता है तथा दोनों एक दूसरे के परिचायक  भी होते हैं/ समाज के लिये भाषा की उपयोगिता  को स्पष्ट करते हुए प्रेमचंद कहते हैं - " मनुष्य में मेल-मिलाप के जितने साधन हैं, उनमें सबसे मजबूत ,असर डालने वाला रिश्ता भाषा का है / राजनीतिक, व्यापारिक नाते जल्द या देर में कमजोर पड़ सकते हैं और अक्सर टूट जाते हैं लेकिन भाषा का रिश्ता  समय की और दूसरी बिखेरने वाली शक्तियों की परवाह नहीं करता और एक तरह से अमर हो जाता है /" ( प्रेमचंद, साहित्य का उदेश्य , पेज न . -११९)    प्रेमचंद के इस कथन को हम भाषा आन्दोलन के परिमाण स्वरुप  जन्मे राष्ट्र बांग्लादेश    के रूप में फलीभूत पाते  हैं / भाषाई अस्मिता तथा भाषाई एकता का जीवन्त उदाहरण है -  बांग्लादेश /

सन १९४७ में भारतवर्ष दो स्वतंत्र राष्ट्रों में विभक्त  हो गया था / संसार के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण  नहीं मिलता जहाँ बर्षों से एक वतन में बसने वाली  जातियों  की सांप्रदायिक अनुदारता  से उस वतन के दो टुकड़े  कर   दिए गए हों / यह विभाजन धर्म  को केंद्र में रख कर हुआ था / धर्म  के नाम पर जो नया मुल्क बना , वह पाकिस्तान था / अब मुसलमानों के लिये पाकिस्तान बन चुका था / पर इस बंटवारे को  हिन्दुस्तान का अवाम स्वीकार नहीं पाया क्योंकि  हिदुस्तान की आजादी के लिये  हिन्दुओं  और मुसलमानों ने मिलकर कुर्बानियां दी थीं पर इसलिये नहीं दी थीं कि  आजादी के   बाद दंगें  झेलें , एक दूसरे  का गला काटें , अपने घर- बार से विस्थापित होएं / लेकिन सियासती  शतरंज पर चालें  चलीं जा चुकी थीं / लाखों लोगों को विभाजन के नाम पर विस्थापित होना पड़ा / तमाम  विपरीत  परिस्थितिओं  के बावजूद बहुत सारे ऐसे घर - परिवार भी थे जिन्होनें  अपनी माटी से उखाड़ना पसंद नहीं किया/ यह उनका अपनी मातृभूमि के प्रति गहरा प्रेम था/ ' जननी ज्नाम्भुमिश्ये  स्वर्ग दपि गरियशी ' - में आस्था के चलते बहुत से हिन्दू पाकिस्तान में ही रह गएँ / इधर भारत में भी बहुत सारे मुसलमान बंटवारे के बाद पाकिस्तान नहीं गएँ  बल्कि हिदुस्तान  को ही अपना वतन  माना /

भारतवर्ष  में भाषा और धर्म के नाम पर असुरक्षा की भावना  मुसलामानों में नहीं पनप पाई  क्योंकि यहाँ  की सरकारें  अपने तमाम राजनैतिक  प्रतिबद्धताओं     के बवजूद इस बात का ध्यान रखे हुए थीं कि इस देश में किसी भी व्यक्ति को अपने धर्म और भाषा की अभिव्यक्ति का अधिकार बना रहेगा/ पर पाकिस्तान में यह बात पूरी तौर पर लागू  नहीं हो पाई / वहां पर भाषा की समस्या  उठ   खड़ी हुई   /   विशेषकर  पूर्वी पाकिस्तान में जहाँ पर बहुसंख्यक  जनता की मातृभाषा बांगला थी पाकिस्तानी हुकूमत ने दो भाषाओँ  -- उर्दू और अंग्रेजी - को राज भाषा के रूप में स्वीकृति दी थी /   पूर्वी   पाकिस्तान में उर्दू और अंग्रजी बोलने व् समझनेवालों की संख्या बहुत कम थी /वहां की जनता की प्रबल इच्छा थी कि उर्दू और  अंग्रेजी  के साथ साथ बांगला भाषा को भी सरकारी कामकाज के लिये राजभाषा  के रूप में स्वीकृति मिले / 

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

भ्रष्टाचार के दलदल में फंसा हिंदुस्तान ( २)

   डकार जातें हैं ? इन नेतावों को दुबारा चुनाव में चुना नहीं जाना - यह तो हमारे हाथ में हैं/ इसके अलावा हम सभी  को अपने जीवन में भी   शुचिता का पालन करना पड़ेगा तभी हम अपने सामाजिक जीवन में भी शुचिता को  तरजीह दे पायेंगे

भ्रष्टाचार के दलदल में फंसा हिंदुस्तान

   पिछले    कुछ दिनों से  हिंदुस्तान में   भ्रष्टाचार  से जुडी जो ख़बरें   आ रही हैं वे अपने आप में चौकाने वाली हैं तथा विचार करने वाली भी हैं वैसे तो भ्रष्टाचार हिंदुस्तान के लिये कोई नई चीज नहीं है पर हाल ही में इसमें जिस तरीके से बढ़ोतरी  हुई है वह हमें विचलित करता है यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इसके लिये जिम्मेदार सिर्फ नेता नहीं हैं बल्कि   पूरा समाज इसकी  लपेट में हैं   आज भारत सिर से पैर तक  भ्रष्टाचार के दलदल में डूबा हुआ है इस दलदल से आम आदमी दुखी है पर क्या सिर्फ दुखी होने से  भ्रष्टाचार के दलदल से भारत को मुक्ति मिल जाएगी ?  क्या भारत का लोकतंत्र अपने तंत्र की लोलुपता पर सिर्फ अफसोस  जताता रहेगा ? मुझे नहीं लगता कि इस तरीके से चुपचाप बैठ कर इन घटनावों पर मात्र अफ़सोस करके हमारे  दायित्वा की खानापूर्ति हो जाती है  हमें यदि अपने लोकतंत्र के प्रतिनिधिओ की लोलुपता पर अंकुश लगाना है तो हमें इनके खिलाफ  एक सक्रिय प्रतिरोध खड़ा करना होगा बिलकुल उदयप्रकाश की कहानी " और अंत में  प्रार्थना " के नायक डॉ. वाकानकर  की तरह /  क्या हम ऐसा नहीं कर सकते ? क्यों नहीं हम आवाज उठाते ? क्यों हमे यह जरुरी मुद्दा नहीं लगता ? क्यों हम सभी चीजो का दायित्वा मीडिया और न्यायापलिका पर छोड़ देतें हैं ? क्यों हम ऐसे  नेतावों को चुनते हैं जो सत्ता मिलते ही देश और जनता की सम्पति को डा    

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

विकीलीक्स का तहलका

अभी विकीलीक्स के खुलासों    से दुनिया भर में तहलका मचा हुआ है सबसे ज्यादा  तो अमेरिका के माथे पर बल पड़ा हुआ हैं . विकीलीक्स की सूचनाओं से  दुनिया भर के देशों के रिश्तों पर असर तो पड़ेगा ही . इसके जरिये बहुत सारे देशों के चेहरों पर से नकाब उतर चुका है . अमेरिका को माफ़ी तक मांगनी पड़ रही है. पर यह सोचने वाली बात है कि आखिरकार इतने दिनों बाद  विकीलीक्स वेबसाइट पर सूचनाओं को तूफ़ान क्यों उठा  है ? इस तूफ़ान में सिर्फ तमाशा तो देखने को नहीं मिलेगा?

शनिवार, 27 नवंबर 2010

बिहार में नीतीश की जीत : सपनो का आगाज

         बिहार में   नीतीश दुबार सत्ता संभल चुके हैं / उनका सत्ता में दुबारा आना इस बात का प्रतीक   है कि बिहार की जनता अपने सपनो को साकार करना चाहती है   उसे भी दूसरे राज्यों   की तरह अपने बिहार को विकास  की सीढ़ियो  पर चढ़ते हुए देखना है / बिहार की तस्बीर में भी सुनहले रंग भरने हैं / रोजगार के लिये दरवाजे खोलने हैं और यह सब करने के लिये एक ऐसा नेता चाहिए जो इसके लिये काम करे / इस चुनाव में भले ही ५५% जनता ने ही  मतदान के जरिए नीतीश के पक्ष में अपना मत दिया है लेकिन यह मत भी बहुमत की बात करता है इस जीत के बाद  नीतीश की जिम्मेदारी बहुत बढ़ गई है अब उन्हें इस पारी में जनता की अपेक्षाआवों पर पूरी तरह खरा उतरना पड़ेगा    

वी एस नाय पाल पर इस्लामिक फतवा

       अभी हाल ही में वी एस नाय पाल  को यूरोपीय लेखक संसद के द्वारा तुर्की में आयोजित एक कार्यक्रम में उदघाटन के लिए बुलाया जाना था। लेकिन वहां के  स्थानीय तुर्की लेखकों और धार्मिक प्रेस के दबाव की वजह से उनके बदले ब्रिटिश उपन्यासकार हरी कुंजरू को उदघाटन भाषण देने के लिए बुलाया गया / हम सभी यह जानते हैं की वी. एस नायेपाल इस्लाम की निंदा करते रहे हैं और इसीलिये तुर्की में उनके  बुलाए जाने का विरोध किया गया और धार्मिक संघठनो की तरफ से यह  कहा गया कि उनकी मौजूदगी इस्लाम का अपमान है।अब यह सोचने वाली बात है कि हम क्या तालिबानी संस्कृति से उबर  नहीं सकते ?आखिर कब तक इन ताकतों की हर बात को हम यूँ ही मानते रहेंगे ? क्या एक लेखक को अपनी विचारधारा से दूरी बना लेनी चाहिए ? लेखकीय स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी पर ये धार्मिक संघठन  जिस तरीके से  आए दिन हमले कर  रहे हैं। वह चिंता वाली बात है / क्या इन फतवों का जवाब नहीं दिया जा सकता?

 इस  घटना से साफ़ पता चलता  है कि इस्लामिक   रुद्धिवाद या कट्टरवाद से  यूरोप भी कितना डरता है /  यह भी सोचने वाली बात है कि  वह इसे रोकने या इसका प्रतिवाद करने के बजाए इसे   हवा भी दे रहा है आज जरुरत इस बात की है कि हमें किसी भी प्रकार का रुद्धिवाद चाहे वह हिन्दू हो या इस्लामिक हो उसका   विरोध करना चाहिए/     

शनिवार, 20 नवंबर 2010

छात्रों में बढती हुई दिशाहीनता

छात्र हमारे सामाजिक जीवन के सबसे महत्वपूर्ण  अंग होते हैं पर आज कल के छात्रों को देखकर बड़ी निराशा होती है न पढने से इनका कोई सरोकार होता है और न कुछ सीखने के प्रति दिलचस्पी / आप कॉलेज के छात्रों  से मिल लीजिए तो यह हकीकत आपके सामने आ जाएगी / अब उनके लिये कॉलेज पढने का केंद्र नहीं रह गया है बल्कि राजनीति और फैशन करने का अखाड़ा बन चुका है  अब वे   न तो  ज्ञान के प्रति जागरूक हैं  और न गंभीर तरीके से कुछ पढना चाहते हैं. 
अब तो वे चयन किए   गए  कुछ सवालो को पढ़कर परीक्षा की नदी पार कर लेना चाहते    हैं जैसे तैसे जल्दी से नौकरी   पा जाना चाहते हैं
राजनीति ने भी छात्रों का बेडा गर्क किया है राजनीति की सही समझ सभी  छात्रों को है ऐसा नहीं कहा जा सकता
राजनीति का मतलब यह नहीं होता की हम विरोध के नाम पर सब सीमाओ को लाँघ जाये  उंचश्रिंखल बन जाए
विरोध के नाम पर , राजनीति करने के नाम पर पढाई  से तौबा कर ले और यह मानकर चले की राजनीति में किसी पार्टी का झंडा ढोने मात्र से नौकरी मिल जाएगी  तो यह खाई में गिरने के समान  है
ऐसा नहीं है की सारा दोष इन छात्रो पर लाद दिया जाए इसके लिये अध्यापक वर्ग भी बहुत हद तक जिम्मेदार  है   हम अध्यापको ने  छात्रों को बेलगाम छोड़ दिया  हैं हम अध्यापक भी ओछी राजनीति करते हैं और अपनी भूमिका से कहीं न कहीं मुँह चुराते हैं

आज अध्यापन की दुनिया में ऐसे लोगो की भरमार है जो इस पेशे को  महज नौकरी मानते हैं न कुछ नया  पढ़ते हैं और न छात्रों को पढने के लिये प्रेरित करते हैं बस क्लास लेने तक अपने आप को सीमित रखते हैं

चुनाव में बिहार का ऊंट किस करवट बैठेगा ?

दोस्तों , आज बिहार में चुनाव का अंतिम दौर ख़तम हुआ है . सभी नेताओ और जन प्रतिनिधियो की तक़दीर का  फै स ला वोटिंग मशीन में बंद हो चुका  है इसे लेकर मीडिया में बहुत कयास लगाया  जा रहा है की अब बिहार किसके हाथ में जाने वाला है ? नीतीश   आएंगे या लालू और रामविलाश का गठबंधन सत्ता में वापस आएगा ? फिलहाल कुछ कहना अभी आधारहीन बात होगी क्यों की हमारे लोकतंत्र में जनता की नब्ज को टटोलना अब आसान नहीं रह गया  है जनता जनार्दन बिहार के ऊंट को किस करवट बैठाएगी कुछ बताया नहीं जा सकता जनता विकास को देखेगी या फिर से वही जाति के नाम पर अपने जन  प्रतिनिधियो को चुन कर अपना भाग्य विधाता बनाएगी

आज समाचार में मैंने एक रिपोर्ट पढ़ा  जिसमें यह उल्लेख था  की आज से   १२-१३ साल पहले लेखक और पत्रकार अरविन्द एन दास ने लिखा था , " बिहार विल राइज   फ्रॉम इट्स ऐशेज " यानि बिहार अपनी राख से उठ खड़ा होगा
इस बात को पढ़ते वक्त यक़ीनन  यह लग रहा है की क्या वह समय आ गया है या क्या वह समय आ रहा जब बिहार की तस्वीर में बदलाव के चिनह या निशान दिखाई पड़ रहे हैं  ?
 सबसे पहले तो सडकों की बात पर आइय  /   अब बिहार में पक्की सड़के  और जगमगाते हाई वे दिखाई पड़ रहे हैं / लडकियां  साइकिलो से पढ़ने निकल रही हैं क्यों की नीतीश सरकार ने जो सबसे अच्छी  कोशिश की की    लड़कियों   को पढने के लिये घर से बाहर निकाला और उन्हें साईकिल दिया जो दूर दराजो  से आवागमन की सुविधा नहीं होने की वजह से पढने नहीं जा पाती थी  अब आप कहीं भी किसी भी इलाके में चले जाइए  साइकिलो पर पढने जाती हुई लड़कियां  दिखलाई पड़ती हैं शायद  इन लड़कियों    से बिहार में ब्याप्त अशिक्षा  का अँधेरा दूर हो /

तीसरी बात है हम सभी को यह स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं है की जो बिहार कभी अपराधो की दुनिया में प्रथम स्थान पर विराजमान था आज वह ग्राफ थोडा तो गिरा ही है अब अपहरण का उद्योग बंद हो चुका है बड़े बड़े बाहुबली जेल में बंद हैं

बिहार को आज जरुरत इस बात की है की उसे फिनिक्स पक्षी की तरह अपने राख से फिर पुनर्जीवित होना पड़ेगा.
दोस्तों इस चुनाव से ऐसा ही हो हम सब की यही आशा है बिहार पर विश्वास है की एक दिन वह अपनी विरासत को सहेजेगा और फिर से एक नया  बिहार चमकेगा

सोमवार, 15 नवंबर 2010

भ्रस्टाचार को रोकने की कवायद

  देर से ही सही कांग्रेस ने भ्रस्टाचार के शक्तिशाली घोड़ो को लगाम लगाया है. अशोक चौहाण , कलमाड़ी और अब राजा की नकेल कसी जा चुकी है/ यह बड़े अचरज की बात है की भ्रस्टाचार में गले तक डूबे नेताओ को  अब शर्म नहीं आती है/ बड़े से बड़े आरोपों को ये आसानी से हजम कर जाते हैं और बड़ी राशियो को भी/. इस्तीफे देने के लिये इन पर हाई कमान  की तरफ से जब तक दबाव नहीं बनता तब तक ये अपना पद छोड़ना नहीं चाहते /. इनसे कोई पूछे की क्या पद पर रहने की नैतिकता का आपने कहाँ तक ध्यान रखा है ? क्या भ्रस्टाचार में आकंठ डूबते वक्त आपने अपने पद की गरिमा का ध्यान रखा ?

अब सोचने का वक्त आ गया  है की क्या ऐसे नेताओ  के बल पर हिदुस्तान अपने लोकतंत्र को सुचारू रूप से चला पायेगा ?

क्या इन नेताओ को वोट देते वक्त हमे अब सोचना नहीं चाहिए ?

 अब हिदुस्तान के वोटरों को आँख खोलना ही पड़ेगा आखिर कब तक हम ऐसे नेताओ को चुनते रहेंगे जो गद्दी मिलते ही सबसे पहले देश को और देश के आम आदमी  के मेहनत की कमाई  को  लूटने में लग जाते हैं /

फिलहाल कांग्रेस ने दबाव से ही सही भ्रस्त नेताओ को एक सबक तो दिया ही है पर सिर्फ इस्तीफे से काम नहीं चलने वाला है इन नेताओ पर कड़ी करवाई होनी चाहिय / सभी राजनीतिक दलो को ऐसे नेताओ को टिकट   ही नहीं देना चाहिए / और न तो ऐसे नेताओ को मंत्रिमंडल में कोई जगह मिलनी चाहिय ?  अब सबको इस भ्रस्टाचार के खिलाफ अपनी भूमिका साफ करनी होगी क्यों की यहाँ सभी हम्माम में नंगे हैं / और नंगो से हिंदुस्तान को मुक्ति पाना ही होगा.

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

obama ka saugat

 ओबामा की भारत यात्रा से  निसंदेह  भारत  को एक नई  दिशा मिली है  और यह दिशा भारत , अमेरिका और पूरी दुनिया के लिये बहुत अहम् है . अब अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश को भी लगने लगा है की अब भारत को नजरंदाज करके न तो आर्थिक महाशक्ति बना जा सकता है और न एशिया में अपना महत्वा स्थापित किया जा सकता है. जो भी हो जाते जाते  ओबामा ने भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थाई सीट के लिये अपना रुख नरम तो किया है और एक आश्वासन भी मिला है  पर भारत का यह सपना कब तक पूरा होगा ? देखा जाये

आज जरुरत इस बात की भी है की भारत को अपनी बढती हुई ताकत को और एक नई  पहचान को पूरी दुनिया से मनवाना पड़ेगा. ओबामा से इसकी शुरुआत हो चुकी है इस यात्रा से भारत और अमेरिका के संबंधो में एक गर्माहट तो बेशक आई है और इस गर्माहट से चीन और पाकिस्तान जैसे देशो के माथे पर चिंता की लकीरें भी खीचीं हैं /

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

kashmir se judi kuch batein (2)

         अंग्रजो  ne  इस  राष्ट्रवादी लहर को रोकने के लिये एक रणनीति बनाई  और यह निर्णय किया की कश्मीर में मुस्लिमो की बड़ी जनसँख्या का लाभ लेने के लिये किसी शक्तिशाली मुस्लिम नेता को जनम दिया जाये  संयोग से उस समय अलीगढ़   विश्वविद्यालय से एम्. ए पास कर के एक नयुवक    आया था जो यदपि शिक्षक  की नौकरी कर रहा था लेकिन उसमें राजनीतिक  मह्त्वाकंछा     बहुत अधिक थी उस युवक्  का नाम था शेख अब्दुल्ला / ब्रिटिश सरकार ने इस युवक्  पर अपनी नजर केंद्ररित  कर दी /शेख अब्दुल्ला प्रारंभ से ही सांप्रदायिक प्रवृति का व्यक्ति था इसलिये ब्रिटिशो को माहाराजा के विरुद्ध भड़काने के लिये एक अंग्रजी पढ़ा लिखा व्यक्ति मिल गया यदपि वह गुलाम अबबास चौधुरी की मुस्लिम कांफ्रेस की ओर आकर्षित था, लेकिन मह्त्वाकंअछि अब्दुल्ला को यहाँ अपना भवइष्य    अधिक सुनहरा नजर आया . परिस्थितिया ऐसी तैयार होती चली गई  की शेख अब्दुल्ला ने अपनी खुद की नेशनल कांफ्रेस नामक पार्टी बना डाली कट्टरवादी  अब्दुल्ला राजा हरी सिंह का विरोधी तो था ही उसने भारत छोड़ो की नारे की तरह १९४६ में महाराजा के विरुद्ध कश्मीर छोड़ो आन्दोलन शुरू  कर दिया. महाराजा ने शेख और उसके साथिओ को गिरफ्तार कर लिया. महात्मा गाँधी ओर सरदार पटेल के विरोध के बावजूद पंडित जवाहरलाल नेहरु ने मराराजा से शेख को छओड   देने  की अपील की . यही नहीं उन्होंने कश्मीर आकर शेख का मुकदमा लड़ने की घोषणा भी कर दी . महाराजा  ने नेहरु के कश्मीर प्रवेश  पर रोक लगा दी थी प्रवेश करते हुए महाराजा ने नेहरु को गिरफ्तार भी कर लिया नेहरु महाराजा  की इस कार्यवाही पर जल भुन गए  यहीं से कश्मीर समस्या का अंकुर फूटा  इसे हल करने में नेहरु ने अपनी मान मर्यादा को दाव् पर लगा दिया आज जो कुछ हम देख रहे हैं वह केवल महाराजा   के विरुद्ध  में एक हुए अब्दुल्ला और नेहरु का पैदा किया हुआ विष है.

भारत के आजाद हो जाने के पश्चात भी जिन्ना ने महाराजा हरी सिंह का पीछा नहीं छोड़ा  कभी उनके अपहरण की योजना बनाई तो कभी खाने में विष पहुचाया इसके बावजूद जब हरी सिंह को अपने राश्ते से नहीं हटा पाए तो २० अक्टूबर १९४७ को पाकिस्तान के मेजर  जनरल अकबर खान ने कबाइली सेना की आड़ में कश्मीर पर हमला कर दिया महाराजा की सेना पाक सेना की तुलना में बहुत कम  और कमजोर थी / निराश महाराजा ने २४ अक्टूबर को ही भारत सरकार के समूख  कश्मीर के विलय का प्रस्ताव रख दिया. २७ अक्टूबर  १९४७ को प्रस्ताव स्वीकृत किया गया

सरदार पटेल के विरोध के बावजूद पंडित नेहरु ने सेना की कमान शेख को सौप दी जिसने अपने प्रभाव वाले छेत्र को ही ध्यान में रखा भारतीय सेना दो तिहाई भाग को जीत  चुकी थी, लेकिन शेख ने सेना को रोक कर गिलगित की और मोड़ दिया जिसका नतीजा यह आया की पाकिस्तान के कब्जे में आज भी भारत का ७८,११४ वर्ग किलोमिटर  छेत्र है जहाँ भारत पर आतंकवादी हमले करने के लिये आतंकी प्रशिक्षण शिविर चलाते हैं / "  इस लेख को आप सभी पढ़ कर विचार करे

Kashmir se judi kuch batein

अभी हाल ही में मैंने एक लेख पढ़ा है कश्मीर पर  और मैं उसे आप लोगो के साथ शेयर करना चाहती हूँ. यह लेख मुजफहर हुसैन द्वारा लिखा हुआ है इसे मैं आप लोगो के सामने पेश करती हूँ
 " कश्मीर का नासूर बहुत पुराना है जो लम्बे समय से रिस रहा है . कश्मीर पर मुस्लिमो का आधिपत्य दूसरे  पानीपात के युद्दा के पश्चात  हुआ जब हेमू अकबर से पराजित हो गया / उत्तर   पश्चिम का यह सारा छेत्र   हेमू के कब्जे में था १५८६ में हेमू की हार के कारन कश्मीर मुस्लिम साम्राज्य  का अंग बन गया. पौने दो सौ वर्षो तक मुगलों का राज कश्मीर में रहा/ १७५० में अहमद शाह   अबदाली ने कश्मीर को जित लिया/ १८१९ तक  कश्मीर पठानों के आधिपत्य में रहा उस समय  पठानों ने कश्मीरी जनता पर दिल हिला देने वाले अत्याचार  केए जनता त्राहि त्राहि पुकार रही थी  इसका लाभ महाराणा रंजित सिंह ने उठाया  और १८१९ में कश्मीर पर हमला करके उसे अपने कब्जे में ले लिया इस प्रकार कश्मीर खलाशा साम्रज्य  के अंतर्गत  आ गया . लगभग ३० वर्षो तक सिक्खों का कश्मीर पर आधिपत्य रहा १८४६ में गुलाब सिंह ने डोंगर राज्य की सथापना कर डाली  यही विरासत आगे चल कर हरी सिंह को मिली जिनके समय में भारत की आजादी की लहर चल रही थी  ब्रिटिश सरकार  और मुस्लिम दोनों के ही दन्त कश्मीर पर थे सन १९३० में लन्दन में हुए गोलमेज सम्मेल्लन में कश्मीर के राष्ट्रवादी राजा  हरी सिंह ने भारत की स्वाधीनता की मांग को समर्थन देते हुए जो वक्त्ब्ये  दिया था उस से ब्रिटिश अत्यंत छुब्ध थे /

रविवार, 7 नवंबर 2010

aboma ke swagat mein bichha bharat ka tantra

                              ओबामा के स्वागत में बिछा भारत का तंत्र
ओबामा  भारत की यात्रा पर हैं और उन्हें लेकर भारत का तंत्र और मीडिया जिस तरीके से बिछे हुए हैं  वह अपने आप में विचार करने लायक है क्या ओबामा से भारत जो चाहता है वह पूरा हो जायेगा ? ओबामा के आने से क्या अमेरिका और भारत के रिश्ते में क्या और कितना बदलाव आएगा ? ओबामा की इस यात्रा से भारत अपने पड़ोसिओ को क्या सन्देश देगा?  क्या ओबामा की इस यात्रा से पाकिस्तान भारत में जो आतंकी कारवाई कर रहा है उस पर कुछ अंकुश लगेगा या नहीं ? भारत के युवाओ को अमेरिका कितनी नौकरिया देगा ? ओबामा क्या भारत की ताकत को स्वीकृति देंगे? क्या वे भारत का इस्तेमाल चीन को दबाने के लिये तो नहीं कर रहे हैं?  जो भी हो ये सारे सवाल तो उअठेंगे ही  पर मीडिया की भूमिका पर अचरज होता है वह चारण  की भूमिका में  आ गई है और अपने तंत्र की क्या बात की जाए वह तो ओबामा को लेकर भारत के लोगो को दिन में ही मुगंरीलाल के हसीं सपने दिखा रही है इस सपने से सावधान होना पड़ेगा.  बहरहाल देखा जाए इस यात्रा का क्या प्रभाव भारत और खुद अमेरिका पर क्या पड़ता है ?

बुधवार, 3 नवंबर 2010

Nai Subah : Samaj ke patanshil chehre ka aaiena

 दोस्तों , आज फिर से आपके सामने डॉ. शंकर तिवारी के उपन्यास नयी सुबह को लेकर कुछ बातें शेयर करना चाहती हूँ. यह उपन्यास शंकर तिवारी का पहला उपन्यास है पर पहला उपन्यास होने के बावजूद पठनीयता और अपने समय के जरुरी सवालों को उठाने  की दृष्टि से  अति महत्वपूर्ण है  यह उपन्यास  भारत   की राजनीति    के असली चेहरों  को सामने तो लाता ही है उसके अलावा 1972 से लेकर 2009 तक भारत की राजनीति में कौन से परिवर्तन आएय और हमारे देश का राजनीतिक चरित्र किस तरीके से बदलता रहा है इन सबका उपन्यासकार ने बिना किसी राजनीति में पड़े उसका खुलेआम वर्णन किया है यहाँ लेखक ने साहित्य की दृष्टि से भारत की राजनीति को उपन्यास के कैनवास पर उतारा है
इस उपन्यास का नायक राजीव है जो बिहार के एक छोटे से ग्राम का युवक है   वह किसांन  परिवार का होनहार लड़का है उसे लेकर घरवालो के अनेक सपने हैं पर राजीव के सपने थोड़े अलग हैं. वह जयप्रकाश के द्वारा चलाये गये  आन्दोलन में शामिल होता है तथा देश के लिये कुछ करने का जज्बा पालता  है जेल भी जाता है पर १९७५ में जब आपातकाल के बाद सत्ता बदलती है तब राजीव यह देख कर की जनता पार्टी की सरकार भी वैसे ही भ्रस्ता है जैसे कांग्रेस की सरकार थी यहाँ राजीव का मोहभंग होता है और वह राजनीति से मुँह मोड़कर जीवन की एक नयी दिशा में चला जाता है
वह कोलकता   चला आता है और अपनी छोड़ी गई पढाई को फिर से नए   सिरे से आरम्भ करता है और यहाँ देश के शिक्षा  वयवस्था के यथार्थ पर लेखक रौशनी डालता है

इस उपन्यास में एक प्रेम की कहानी भी है जो पाठको का ह्रदय स्पर्श करती है  मुझे लगता है की हर संवेदनशील पाठक को इस उपन्यास को पढना चाहिए

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

bhrashtachar se mukti kaise ?

भ्रस्टाचार हिदुस्तान की पहचान बन चूका है.जो जहाँ है वहीँ गोलमाल कर रहा है.अभी हिंदुस्तान कॉमनवेल्थ खेलों  के भ्रस्टाचार से उबर भी नहीं पाया था की अभी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अपने रिश्तेदारों को कौड़ी के दर पर फ्लैट बेच कर अपने पद का दूरप्रयोग करके सुर्खिओ में आ चुके हैं. क्या कहा जाये इस  देश के कर्ताधारो को जो गद्दी मिलते ही भाई-भातिजो की सेवा में जुट जाते हैं. अरे भाई कुछ तो शर्म कीजीए   ?   यह देश आपके लुट कर खाने पीने के लिये नहीं बना है करोडो नागरिक इसलिये टैक्स नहीं देते की आप  जैसे बेईमान लोग देश को चार कर खा जाए /  वैसे ही तो देश को भुला कर सब अपनी तिजोरी भर रहे हैं उस पर आप जैसे जनसेवक भी जनता की गाढ़ी कमाई खा लेंगे तो कैसे इस देश की तरक्की का सपना आप लोग दिखाएंगे ?

रविवार, 31 अक्तूबर 2010

kashmir kiska hai ?

आजकल   कश्मीर को लेकर जितनी बातें की जा रही हैं उतनी कभी नहीं हुई. तीन  दिन पहले लेखिका अरुंधती रॉय ने जो कहा उसको लेकर बवाल मचा हुआ है. असल में अरुंधती रॉय यही चाहती थी. उन्हें खबरों में बना रहना अच्छा लगता है . खबरों    में बने   रहने के लिये कश्मीर और मावोवाद से अच्छा  कोई मुद्दा हो ही नहीं सकता इसलिये इस पर जो भी कहा जाये बहस होनी ही है. असल में ये दोनों मुद्दे बड़े ही संवेदनशील हैं पर हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग को क्या कहा जाये ? जो अपने आपको जयादा प्रगतिशील और मानव अधिकारों का प्रवक्ता सिद्ध करने के चक्कर  में बिना  कुछ समझे बहुत कुछ कह जाते हैं.   अगर  इनका वश चले तो ये देश को तश्तरी  में रख कर कट्टरवादी ताकतों को सौप दें असल में अरुंधती रॉय को इन मुद्दों पर कश्मीर- विरोधी और
सरकार - विरोधी विचार देकर अपने आप को नोबेल पुरस्कार  दिलवाना है  रॉय जी अगर आपकी बात मान ली जाये तो भारत का अस्तित्वा एक दिन मिट जायेगा / आप किनको कश्मीर देना चाहती हैं?. कश्मीर कश्मीरवालो का है और उसमें हिन्दू कश्मीरी पंडित , सिख और मुसलमान भी शामिल हैं. आप जैसी जागरूक लेखिका को कश्मीर की मूल समस्या पर बात करनी चाहिए  . वहां के लोगो को रोजगार चाहिये , अमन चाहिए , आतंकवाद से मुक्ति चाहिए, इन मुद्दों पर बात करिए की कैसे कश्मीर के जरुरी सवालातो को सुलझाया जाये ?
क्या हमारे बुद्धिजीवी कभी हिम्मत कर पायेंगे की तुष्टिकरण की राजनीति को छोड़कर देश के आम आदमी चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान , के लिये लड़ेंगे न की बड़े पुरस्कारों के मोःह   में अपने देश से ही बोलने की  आजादी के नाम पर देश को फिर से बाटने की साजिश  में शामिल होंगे / आपको विचार करना ही होगा?

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

karva chauth : dampatya prem ka prava

कल करवा चौथ का व्रत स्त्रियों ने बड़े धूम धाम से मनाया यह व्रत हमारी संस्कृति की उस ताकत को दर्शाता है जहाँ औरते अपने पति को परमेश्वर मानकर पूजती  हैं. अपने पति और अपने घर के लिये औरते उपवास और व्रत रखती हैं. पर इन औरतो के लिये न तो हमारा पुरुष समाज कोई व्रत रखता है और न ही इसका कोई प्रमाण मिलता है . मुझे लगता है   पुरुषो की तुलना में औरते संस्कृति को ज्यादा जीती हैं तथा उसको बचाय  भी रखती हैं.
हा, यह अवशय  है की आजकल कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं और यह अच्छा भी है क्यों की आखिरकार यह व्रत पति-पत्नी के बीच    के प्रेम का ही व्रत है. अपने पति को सात जन्मो तक पाने के संकल्प का  व्रत है.दांपत्य प्रेम को मजबूत करने के लिये समर्पित इस व्रत को करने वाली औरतो को सलाम

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

आएइए, दोस्तों मैं इस   उपन्यास के बारे में आप को कुछ बताऊँ यह उपन्यास जयप्रकाश नारायण के द्वारा चलाएए  गए  आन्दोलन संपूर्ण क्रांति को केंद्र बनाकर चलता है. एस उपन्यास में दो कथा आपस में घुलमिलकर चलती है. एक कथा राजनीतिक पृष्ठभूमि पर केन्द्रितित है तो दूसरी कथा प्रेम की मोहक तस्वीर पेश करती है, इस upan अयास का नायक राजीव है जो ईमानदारी  को  अपनी ताकत मानता है वह अपने देश और समाज के लिय बहुत  कुछ करना चाहता है  उसी समय देश में एक ऐसी हवा चलती है जो सारे नवयुvको  को कांग्रेस के भ्रस्ट्रा चार से मुक्त होने के लिये दूसरी आजादी के आन्दोलन की तरफ धकेल देती है. राजीव भी एस आन्दोलन में जोरशोर से भाग लेता है

Nai Subah : Bihari Asmita ki nai pahachan

Dosto, aaj mai aap ke samne Dr. Shankar Tiwary ke upanyas " Nai Subah" ki thodi bahut batein aap se charcha karungi. Yah Upanayas ek aise author ke dwara likha gaiya hai jo mathematics ka professor hai, Yeh Upanayas uski sahityik ruchi ko gaharai se darsta hai. Sath hi uski gahari adhyansilta ko bhi.

Aaeye es upanayas par baat kare.

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

nai subah

नयी सुबह ब्लॉग की शुरुआत मैं डॉ. शंकर तिवारी के उपन्यास " नयी सुबह" के बारे में कुछ बताना चाहती हूँ. यह उपन्यास बिहार के पृष्ठभूमि पर आधारित है. इसमें जयप्रकाश नारायण के द्वारा चलाया गया  संपूर्ण क्रांति के आन्दोलन  पर प्रकाश डाला गया हैं.