गुरुवार, 15 अगस्त 2013

अपने दुखों के साथ...

मेज की दराज में 
अपने दुखों को सहेज कर रखा हूँ 
 जाने कैसा लगाव हो गया है इनसे 
छोड़ने का मन ही  नहीं करता /

साथी रहे हैं ये मेरे 
लंबे उदास दिनों के 
हारते हुए हर क्षण में 
इन्हीं को अपने पास खड़े पाया है /

सोचता हूँ 
अगर ये दुख  होते तो 
कैसा होता हमारा जीवन ?
कैसे कटते वे लंबे रास्ते 
जिन पर चलने के लिए 
मुझे अकेला छोड़ दिया गया था /

लोग  कारवाँ के साथ 
गुबार उड़ाते चले गये थे 
और.... मैं 
हाशिए पर टंगा रहा 
अपने दुखों के साथ /