मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

वे दिन ......

वे  दिन  ……
मेरे लिए सबसे कठिन रहे
जब तुम मौसम की  तरह
बदल रहे थे  …
और
मैं खामोश
एक परिंदे की  तरह
शाख पर बैठी
बसंत का इंतज़ार कर रही थी /

बसंत...
जिसे कभी नहीं आना था मेरे द्वार /
पर इंतज़ार में अक्सर
टंगा  रहता था
वह
किसी पीले पत्ते की तरह
मेरी धुंधली पड़ती जा रही   आँखों      में /




वे दिन
मेरे लिए सबसे कठिन रहे
जब  मैं   उजली   मुस्कानों    लिए
 हल्दी      भरे   हाथों    से
चिठियाँ    भेजती  थी पीले बसंत को /

ऐसी चिट्ठियाँ ………
जो बिना डाकिये के
दिग  से     दिगंतर     की  यात्राएँ  करती हैं /





मेरी  चिट्ठियाँ
पद्मा  नदी के उस मांझी को
सम्बोधित  थीं
जो अपनी डोंगी  में बैठा
हर दिन
पद्मा नदी के सुख - दुःख में
न जाने  कौन - सा
गीत गुनगुनाया करता था
जिसे सुनने के लिए
मछलियाँ  किनारे तक चली आती थीं
और चाँद
उतर आता था  रेत पर /



मेरी चिट्ठियां उस  महुवा घटवारिन को
सम्बोधित थीं
जो अपने प्रेम के लिए
गहरी नदी में समां गई थी /
आज भी वह नदी
रह - रह कर उदास हो जाती  है
महुवा घटवारिन की  याद में /













मेरी चिट्ठियां उस बूढे आदमी को
सम्बोधित थीं
जो एक टापू पर बैठा
अपनी उस प्रेमिका का इंतज़ार कर रहा था
जो बरसों पहले यह कहकर चली गई थी
कि '  हम  फिर मिलेंगे ' /








मेरी चिट्ठियां उस मासूम बच्चे को
सम्बोधित थीं
जो अपने गुमशुदा पिता के इंतज़ार में
हर रोज
 गाँव  के बस स्टैंड तक आता था
और फिर
आँखों में चंद  मायूसी के कतरे
लेकर वापस घर लौट जाता था /


वे दिन............
मेरे लिए सबसे कठिन रहे
जब मेरी सारी चिट्ठियां
बैरंग वापस लौट आई थीं /

मेरी चिट्ठियों को
न पद्मा नदी का वह मांझी मिला
न वह महुवा घटवारिन
न वह बूढ़ा  मिला
और  न ही वह बच्चा /

वे दिन ...........
मेरे लिए सबसे कठिन रहे
जब तुम मौसम की  तरह बदल रहे थे /



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