रविवार, 13 अक्तूबर 2013

मेरा गाँव

 हर रोज 
सवा एक बजे 
बलिया एक्सप्रेस 
छूटती  है सियालदह स्टेशन से /

उसका छूटना 
मुझे मेरी स्मृतियों के देश में ले जाता है 
जहाँ मेरा गाँव
अपने मांझी के पुल के साथ 
मेरे बाबा की तरह 
लाठी टेके 
मेरी राह देख रहा होता है /

मेरा छोटा - सा गाँव " कर्ण छपरा"
जिसके बारे में इतिहास अक्सर मौन रहा है ...
इतिहास से बेदखल मेरा गाँव
अक्सर मेरी स्मृतियों में 
मुखर रहता है /

गवाह रहा है वह 
मेरे  निर्वासन का ....
मेरी उस यात्रा का 
जिसमें सबकुछ मेरी हाथों से 
छूटता चला गया था /

मेरा गाँव स्तब्ध था 
आख़िरकार वह समझ नहीं पाया था कि
उसने साथ छोड़ा था मेरा 
या
मैं उसे छोड़कर चली आई थी 


लगातार एकांत से एकांतर की ओर....

साथ छूटने का दर्द 
मेरी आँखों में भी था 
और वह भी कुछ परेशान-सा था 
वह जानता था 
मेरा जाना
अब कभी  लौटना है /

मेरी आजी के साथ 
वह भी  बक़ुलहाँ स्टेशन तक 
दौड़ेदौड़े अपने खेतों के साथ 
 पहुँचा था / 

मेरी आजी .....
धुंधली यादों के साथ पीछे 
छूटती चली गईं थीं
पीछे घूमकर देखा तो 
मेरा गाँव  चुपचाप खड़ा था 
मेरी आजी को थामे...... 
और मैं तेज़ी से एक बिंदु में बदलती चली गई थी /

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