शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

मेरा प्रेम उदास खड़ा था /

बरसों  बाद
बड़ी लंबी  नींद से जगा था मैं
 जाने कितने रतजगे के बाद
ऐसी नींद सोया था /
घर चुपचाप
मेरे बिस्तर पर तना
मेरे जागने   का इंतजार कर रहा था

मेरी किताबें
अलसाई -सी
अलमारियों में क़ैद थीं
और वे भी इंतजार में थीं ....
अपने पढ़े जाने की /







अच्छा लगा था ....
धूप का यूँ दबे  पाँव आना
और ...
हौले से एक मीठा चुम्बन

मेरे गालों पर दे जाना।
पर यह कौन है
जो मेरे सिरहाने खड़ा है
और उदास भी है /







तनिक ठहरकर
आँखों ने पहचानने की कोशिश की
मन ने तस्सली दिया
यह मेरा अपना ही है
और कोई नहीं
मेरे सिरहाने
मेरा प्रेम उदास खड़ा था /

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

मेरी बहस जारी है ....

दरख़्त   अंधेरे में  मौन खड़े थे
किसी बात को लेकर
शायद
 वे  लंबी बहस के बाद
सुस्ता रहे थे
या
उदास थे
या विचार  मग्न थे
कह नहीं सकता
क्यूँ कि
मैं भी एक लंबी बहस के बाद 
बेहद अकेला था / 

बहस ..... 
मैं घंटों बहस करता था 
बरसते पानी पर 
गुम होते मासूम बच्चों पर 
लुप्त होते बाघों पर
कटते  जंगलों पर  /

ईमानदारी , भ्रष्‍टाचार , देशसमाज , मान -प्रतिष्ठा 
 जाने कितने भारी - भरकम 
शब्दों से मैं रोज खेलता /
मैं इन शब्दों में 
अपने आपको छुपाता
कहीं  कहीं 
ये मेरे लिए 
मेरे जीने का उपक्रम थे /




बहस के बाद 
जब मैं बेहद एकांत हो जाता 
तब लौटता 
अपने आप के पास 
जहाँ मैं 
एक निरीह बच्चे की तरह 
सुबक कर रोता /
और अपनी ग़लतियों के लिए 
उससे माफी माँगता 
जो अब 
मुझे माफ़ करके जा चुकी थी  / 




मेरी बहस जारी है ....
इन दरखतों की तरह 
मैं भी अपने अंधेरे से लड़ रहा हूँ ..../




गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

मेरी बेटी .....




मेरी छोटी - सी गुड़िया 
तुझे मेरा ढेर - सारा प्यार 
और एक गुज़ारिश 
अगले जनम 
मेरी गोद में खिलना ...../

इस जनम ....
अपनी माँ को 
हो सके तो माफ़ करना ....
तेरी माँ हार गई है 
अपने प्रेम में .../
अपने -पराए 
मानसम्मान 
की लाज में 
मेरी बेटी .
तेरी माँ हार गई है /


तेरे लिए फिर मैं  उंगी 
धारण  करूँगी 
जल , आकाश और धरती 
ताकि दे सकूँ तुझे  मैं 
नया प्राण , नया जीवन
और एक प्यारी - सी हँसी  /

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

आँसू की एक बूँद

एक दिन 
आँसू  की एक बूँद 
अचानक 
खिलखिला पड़ी ......

पूछने पर बताया ..
अब 
मैं 
किसी की आँखों में 
नहीं रहती .....


मैने भी हँसना सीख लिया है ..../ 

शनिवार, 25 जनवरी 2014

उदासी की शामें बड़ी लंबी हो रही हैं .....

उदासी की  वह  शाम बड़ी लंबी थी
जब सागर अपनी लहरों को रेत
पर धीमे से छोड़ आया था ....../
आकाश  भी एक सिरे पर
थोड़ा अनमना - सा
मुँह लटकाए
कोई पुरानी कहानी  पढ़ रहा था
और
चाँद अभी गुम सुम - सा बैठा
किसी क़िस्से की आस लिए
मेरे इंतजार में था ...../

मैं अभी -अभी लौटा था
उस  पृथ्वी से मिलकर
जो बरसों से किसी की
तलाश में
अपनी ही  धुन में
समय की परिक्रमा कर रही  थी 
और समय ....
 जाने किस मोड़ पर
मुड़कर
इतिहास के गलियारों में
बेचैन आत्माओं  की  तरह
भटक रहा था   /

मैं भी भटकता रहा
उस  सुख के कतरे के लिए
जो कपूर की तरह
मेरी हथेलियों से उड़ गया था /

अब मेरी झोली में
 कोई किस्सा था
  किसी के नाम कोई चिट्ठी
और  कोई उम्मीद की  लोरी /

 बन्जारे  की तरह
 कंधों पर मैं 
अपना दुख लादे
 आज सागरआकाशचाँद ,   पृथ्वी और समय  से
 विदा ले रहा हूँ
क्यूँ कि
उदासी  की शामें
आज कल बड़ी लंबी हो रही हैं /



मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

वे दिन ......

वे  दिन  ……
मेरे लिए सबसे कठिन रहे
जब तुम मौसम की  तरह
बदल रहे थे  …
और
मैं खामोश
एक परिंदे की  तरह
शाख पर बैठी
बसंत का इंतज़ार कर रही थी /

बसंत...
जिसे कभी नहीं आना था मेरे द्वार /
पर इंतज़ार में अक्सर
टंगा  रहता था
वह
किसी पीले पत्ते की तरह
मेरी धुंधली पड़ती जा रही   आँखों      में /




वे दिन
मेरे लिए सबसे कठिन रहे
जब  मैं   उजली   मुस्कानों    लिए
 हल्दी      भरे   हाथों    से
चिठियाँ    भेजती  थी पीले बसंत को /

ऐसी चिट्ठियाँ ………
जो बिना डाकिये के
दिग  से     दिगंतर     की  यात्राएँ  करती हैं /





मेरी  चिट्ठियाँ
पद्मा  नदी के उस मांझी को
सम्बोधित  थीं
जो अपनी डोंगी  में बैठा
हर दिन
पद्मा नदी के सुख - दुःख में
न जाने  कौन - सा
गीत गुनगुनाया करता था
जिसे सुनने के लिए
मछलियाँ  किनारे तक चली आती थीं
और चाँद
उतर आता था  रेत पर /



मेरी चिट्ठियां उस  महुवा घटवारिन को
सम्बोधित थीं
जो अपने प्रेम के लिए
गहरी नदी में समां गई थी /
आज भी वह नदी
रह - रह कर उदास हो जाती  है
महुवा घटवारिन की  याद में /













मेरी चिट्ठियां उस बूढे आदमी को
सम्बोधित थीं
जो एक टापू पर बैठा
अपनी उस प्रेमिका का इंतज़ार कर रहा था
जो बरसों पहले यह कहकर चली गई थी
कि '  हम  फिर मिलेंगे ' /








मेरी चिट्ठियां उस मासूम बच्चे को
सम्बोधित थीं
जो अपने गुमशुदा पिता के इंतज़ार में
हर रोज
 गाँव  के बस स्टैंड तक आता था
और फिर
आँखों में चंद  मायूसी के कतरे
लेकर वापस घर लौट जाता था /


वे दिन............
मेरे लिए सबसे कठिन रहे
जब मेरी सारी चिट्ठियां
बैरंग वापस लौट आई थीं /

मेरी चिट्ठियों को
न पद्मा नदी का वह मांझी मिला
न वह महुवा घटवारिन
न वह बूढ़ा  मिला
और  न ही वह बच्चा /

वे दिन ...........
मेरे लिए सबसे कठिन रहे
जब तुम मौसम की  तरह बदल रहे थे /



बुधवार, 18 दिसंबर 2013

मेरी समझदारी .....

सारी उम्र मैं दंभ भरता रहा 
 अपनी समझदारी का ...
    अपनी ईमानदारी का....
       अपनी सच्चाई का ......./ 

परंतु सब बेमोल पत्थरों की तरह 
 धरे के धरे रह गये थे
जब तुम खामोशी से 
चली  गईं थीं मेरी दुनिया से /

सारे फ़ैसलें , सारे मसलें 
अनिर्णीत ही रहे 
हमारे दरमियाँ ....
और मैं मन ही मन
खुश होता रहा क़ि
मैं  जीत रहा हूँ 
और तुम हार रही हो 
चूक रही हो.../

परंतु तुम्हारा हारना 
तुम्हारा चूकना 
मेरे लिए मेरी भी हार थी 
मेरा भी चूकना था /




आज मेरे पास 
मेरी समझदारी भी है 
मेरी ईमानदारी 
         मेरी सच्चाई भी 
मेरे साथ ही है /

पर तुम नहीं हो ....
 जाने  सारी उम्र तुम 
मेरे बारे में क्या सोचती रहीं   ..? 

वक्त ही नहीं मिला 
तुमसे यह पूछूँ क़ि 
मैं कैसा लगता हूँ  तुम्हें ? 
तुम शायद  मेरे इस सवाल पर 
मुस्कुरा देती / 

मैं तो यही चाहता था 
क़ि
तुम खिलखिलाती रहो 
एक नदी की तरह /

पर जैसे - जैसे दिन बीतते गये 
मैं परिंदे  की मानिंद 
उड़ता रहा 
कभी इस ठौर तो कभी उस ठौर /

मुझे बहुत कुछ पाना था 
मैं पाता गया ......
मैं तुमसे दूर चला आया था 
और तुम धीरे - धीरे 
एक सर्द नदी बनती चली गईं थीं