बुधवार, 18 दिसंबर 2013

मेरी समझदारी .....

सारी उम्र मैं दंभ भरता रहा 
 अपनी समझदारी का ...
    अपनी ईमानदारी का....
       अपनी सच्चाई का ......./ 

परंतु सब बेमोल पत्थरों की तरह 
 धरे के धरे रह गये थे
जब तुम खामोशी से 
चली  गईं थीं मेरी दुनिया से /

सारे फ़ैसलें , सारे मसलें 
अनिर्णीत ही रहे 
हमारे दरमियाँ ....
और मैं मन ही मन
खुश होता रहा क़ि
मैं  जीत रहा हूँ 
और तुम हार रही हो 
चूक रही हो.../

परंतु तुम्हारा हारना 
तुम्हारा चूकना 
मेरे लिए मेरी भी हार थी 
मेरा भी चूकना था /




आज मेरे पास 
मेरी समझदारी भी है 
मेरी ईमानदारी 
         मेरी सच्चाई भी 
मेरे साथ ही है /

पर तुम नहीं हो ....
 जाने  सारी उम्र तुम 
मेरे बारे में क्या सोचती रहीं   ..? 

वक्त ही नहीं मिला 
तुमसे यह पूछूँ क़ि 
मैं कैसा लगता हूँ  तुम्हें ? 
तुम शायद  मेरे इस सवाल पर 
मुस्कुरा देती / 

मैं तो यही चाहता था 
क़ि
तुम खिलखिलाती रहो 
एक नदी की तरह /

पर जैसे - जैसे दिन बीतते गये 
मैं परिंदे  की मानिंद 
उड़ता रहा 
कभी इस ठौर तो कभी उस ठौर /

मुझे बहुत कुछ पाना था 
मैं पाता गया ......
मैं तुमसे दूर चला आया था 
और तुम धीरे - धीरे 
एक सर्द नदी बनती चली गईं थीं



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