गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

यात्रा

  साल    दर   साल   बीते
समय  अभी भी हमारी परीक्षा ले रहा था
हम  अपने- आपको
अपनी - अपनी कसौटियों पर कस    रहे थे
और एक दूसरे को
हारा  हुआ घोषित  कर रहे थे
न  जाने कहाँ से
हम दोनों के बीच
कई बहाने आ खड़े हुए थे
और हम दोनों
उन बहानों  की डोर पकड़े
एक सदी की यात्रा पर चले गए थे /

जहाँ से तुम्हें जाना था
उस कत्थई दुनिया में
जहाँ रिश्तों के धागों में बंधा
एक गुलाबी पेड़ खड़ा था
तुम हँस रहे थे
तुम्हारी  हँसी
पृथ्वी को   ढाढ़स  दे  रही थी
बची रहेगी हरियाली
और बचा रहेगा वह आकाश
जहाँ तोतों के झुंड
अपने पंखों से
नया इतिहास रच रहे होंगे /

मुझे भी जाना था
पृथ्वी के उस आखिरी छोर  पर
जहाँ एक बूढ़ा अपनी बुझती हुई आँखों से
अपने बचपन का इंतज़ार कर रहा था
याद कर रहा था वह
अपने पुरखों को , अपने खेतों को
शायद  अब वह अकेला था
पुरखे , खेत
इतिहास बन चुके थे /


गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

दिदिया

बरसों  बाद   दिदिया की याद आई थी
हम चकित थे
उनकी  यादों को हम
दूर अतीत के किसी मोड़ पर
पीछे छोड़ आये थे /

बचना चाहते थे हम
उनकी बुझती  हुई आँखों में
उठते  हुए सवालों से /

दिदिया , जो हमारे लिए
बरसते  बारिश में
छतनार का पेड़ थीं
जिनकी हथेलियों में
हमारे बचपन की डोर थी
घनघोर अँधेरे में वे हमारे लिए
उम्मीद  का एक दीया थीं /

 न जाने कहाँ से एक दिन
दिदिया केलिए  फरमान आ गया था
लौटना था उन्हें
नेह - मोह .. सबकुछ छोड़कर /
हमारी जिद ,  हमारी  प्रार्थनाएं
सब  धरी की धरी रह गईं
हम दिदिया को रोक नहीं  पाएं /

बड़ी जल्दी थी उन्हें
पता नहीं  किस लोक जाना था /

रह - रहकर उनकी आँखें
कहीं दूर किसी प्रार्थना  में
डूब जाती थीं

अक्सर  एक नाम , एक चेहरा , एक इंतज़ार
उनके सफ़ेद  पड़ते
श्रीहीन    चेहरे  पर
अनचाहे  अतिथि की तरह
आ खड़ा होता था /

ऊपर से हंसती हुई दिदिया में
दुःख चुपचाप दहाड़े मारता  था
विकट  अकेलेपन में भी दिदिया ने
मंगल - गीत ही गाये  थे
औरों के लिए /

..... एक अलस्सुबह
दिदिया चली  गईं  थीं
आश्वस्त  हुए थे हम
दिदिया मुक्त हुईं
उन सबसे
जिनसे वे  आजीवन बंधी रहीं
हमने उनकी  स्मृतियों  की पोटली को
बांधकर  रख दिया था
हम उन्हें याद करना नहीं चाहते थे
क्योंकि
हम उन्हें बेहद प्यार करते थे ...../ 
उन्हें याद करना
दुःख के देश में
यात्रा पर निकलना था
हम यात्री नहीं थे
अब हम द्वीप बन चुके थे /

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

ज़िंदा हूँ मैं ?

  मैं  अपनी  मुट्ठी  में कुछ सपने लेकर
 गाँव  से शहर  आया था
सोचा था सपने पूरे  होते ही
गाँव लौट जाऊंगा /
साल दर साल बीते
मैं गाँव  लौट नहीं पाया
मेरे सपने हाथ की लकीरों में
कहीं खो गएँ

सोचता हूँ
हिसाब भी लगता हूँ
इन गुजरे हुए साल , महीनों और दिनों का
जो किसी पुल के  खम्भे की तरह

धड़ा धड़  गुजर गए
और इन गुजरे  हुए  सालों , महीनों और दिनों को
मैं सलीब की तरह अपने कन्धों पर उठाये
भागता रहा , भागता रहा , भागता रहा /

आज  मैं बूढ़ा  हो चला हूँ
मेरे सपने भी अब बुढा  गए हैं
  झुर्रियों से थरथराते  हुए
अक्सर   स्मृतियों  के बियाबान में
चला जाता हूँ
जहाँ
कुछ चेहरे  याद आते हैं
जो अब बिछुड़ चुके हैं /

सोचता हूँ
वे चेहरे  जिनसे मैं प्यार करता था
ज़िन्दगी के घुमावदार  रास्तों पर
न जाने किस मोड़ पर
मुझसे छूट  गएँ /

आज  मैं निर्जन टापू पर छोड़ दिए गए
उस आदमी की तरह जिन्दा हूँ
जिसे अब कहीं नहीं लौटना है /

सपने ! सपने ! सपने!
सपनों की बहुत बड़ी कीमत
चुकानी पड़ती है दोस्तों !
सपने तो जिन्दा हैं अब भी
मेरी बूढी दिपदिपाती आँखों में
पर मेरे अपने मुझसे खो गए हैं
मैं रोता हूँ उस मासूम बच्चे की तरह
जिसका प्यारा खिलौना टूटकर चकनाचूर  हो गया है /

मेरी सिसकियों में
 प्रार्थनाएँ  गूंज रही होती हैं
मैं मन ही मन बुदबुदाता हूँ
कुछ नाम , कुछ चेहरे
जो मेरी आँखों में आँसू
की तरह अटके हुए हैं /