मंगलवार, 26 मार्च 2013

योगी

तुम ! तुम थे 
             या 
कोई भुला भटका योगी 
जो मुझे मिल गया था 
किसी पुराने परिचित दुख की तरह /

सोच में पड़ गई थी 
मैं अकिंचन 
तुम जैसे योगी का 
                  क्या करूँ ?

   जाने  किस   से 
 विच्छिन्न  होकर 
तुम भटक रहे थे 
हमारी दुनिया में /

किस राह की तलाश में थे 
कौन - सी राह तुम्हें जाना था 
कहाँ समझ पाई मैं ?




तुम्हारी विकलता 
तुम्हें कहीं दूर ले जाती 
और मैं सूखे  पत्ते की तरह 
तुम्हारी स्मृति  से बुहार दी जाती    /

तुम्हारी दुनिया में 
             ब्रह्मांड  होता ,
                        पृथ्वी होती 
वेद और शास्त्र होते 
पर मैं ...............
आकाश गंगा की तरह 
 जाने कहाँ लुप्त रहती ?

सोमवार, 18 मार्च 2013

जंगल रो रहा है !

पृथ्वी के उस आख़िरी छोर पर 
खड़ा वह मासूम  जंगल 
 जाने कब से सिसक रहा है 

समझ में नहीं आता 
जंगल को ढा  
कैसे बंधाउं?

उसका दुख समझता हूं 
मैं भी तो एक पिता हूं
मुझे भी अपने बेटे के लिए 
कुछ हरियाली बचानी है 
तोतों के उस झुंड को 
आख़िरकार 
एक अमरूद का पेड़ तो देना ही है /

जंगल रो रहा है 
वे   रहे हैं 
वे सभ्यता के मिशन पर हैं 
संस्कृति को बचाने की मुहिम पर निकले हैं  /

जंगल  रहा है .......  

समय

अब शायद इस रिश्ते पर पूर्ण विराम लगाना होगा - 
उसने अपने आपको बचाने के लिए 
इन्हीं शब्दों का सहारा लिया था /

रिश्ता - पूर्ण विराम 
दो खिलौने थे उसके लिए 
वह उनके बीच आँख मिचौनी खेलता /

खेलते - खेलते जब वह थक जाता 
वह अपने लिए फिर एक नये रिश्ते तलाशता/
वह रिश्तों के बिना जी नहीं सकता था /

रिश्ते मरते जाते थे 
और वह पूर्ण विराम को अपने कंधों  पर 
लादे भागा जा रहा था 
ना जाने किस सदी की ओर 

वह मैं और आप नहीं 
बल्कि समय था 
जो भागा जा रहा था 

पत्थर

सारी  जिंदगी गुज़ार  दी मैंने
एक पत्थर को देवता बनाने में
तरासा , संवारा
बिठाया  उसे मन के ऊँचे आसन पर
फूल चढाये , दीप जलाये
मन्त्रों से अभिमंत्रित किया
और एक दिन पाया
पत्थर तो पत्थर ही होते हैं /


शुक्रवार, 1 मार्च 2013

आँखों का दर्द

समय  बड़ी तेजी से भागा  जा रहा था
  और मैं थक चुका   था 
कन्धों पर न जाने कितने  जन्मों का  बोझ उठाये 
अब तक कितने  मीलों की दूरी   तय कर आया था 
और न जाने अभी कितनी दूर जाना था मुझे  /

  इस यात्रा में  मेरा सब कुछ .......
 रेत   की तरह  मुट्ठी से फिसल गया था 
सोचा नहीं था .......... 
यात्रा पर निकलते समय  मेरी आँखों में इतना पानी कहाँ से आया था 
क्यूँ  मन दहाड़  मारकर  सुलग रहा था 
क्यूँ  लगा था शायद मैं फिर कभी लौट न पाउँगा ? 
आज  लगता है  मेरी आँखों में आये पानी का  दर्द क्या था  
मन के सुलगने का अर्थ भी समझ पाया हूँ 

आज भी मेरी यात्रा जारी  है ...........
मन बोझिल- सा  सब कुछ  ढोए जा रहा है ...

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

यात्रा

  साल    दर   साल   बीते
समय  अभी भी हमारी परीक्षा ले रहा था
हम  अपने- आपको
अपनी - अपनी कसौटियों पर कस    रहे थे
और एक दूसरे को
हारा  हुआ घोषित  कर रहे थे
न  जाने कहाँ से
हम दोनों के बीच
कई बहाने आ खड़े हुए थे
और हम दोनों
उन बहानों  की डोर पकड़े
एक सदी की यात्रा पर चले गए थे /

जहाँ से तुम्हें जाना था
उस कत्थई दुनिया में
जहाँ रिश्तों के धागों में बंधा
एक गुलाबी पेड़ खड़ा था
तुम हँस रहे थे
तुम्हारी  हँसी
पृथ्वी को   ढाढ़स  दे  रही थी
बची रहेगी हरियाली
और बचा रहेगा वह आकाश
जहाँ तोतों के झुंड
अपने पंखों से
नया इतिहास रच रहे होंगे /

मुझे भी जाना था
पृथ्वी के उस आखिरी छोर  पर
जहाँ एक बूढ़ा अपनी बुझती हुई आँखों से
अपने बचपन का इंतज़ार कर रहा था
याद कर रहा था वह
अपने पुरखों को , अपने खेतों को
शायद  अब वह अकेला था
पुरखे , खेत
इतिहास बन चुके थे /


गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

दिदिया

बरसों  बाद   दिदिया की याद आई थी
हम चकित थे
उनकी  यादों को हम
दूर अतीत के किसी मोड़ पर
पीछे छोड़ आये थे /

बचना चाहते थे हम
उनकी बुझती  हुई आँखों में
उठते  हुए सवालों से /

दिदिया , जो हमारे लिए
बरसते  बारिश में
छतनार का पेड़ थीं
जिनकी हथेलियों में
हमारे बचपन की डोर थी
घनघोर अँधेरे में वे हमारे लिए
उम्मीद  का एक दीया थीं /

 न जाने कहाँ से एक दिन
दिदिया केलिए  फरमान आ गया था
लौटना था उन्हें
नेह - मोह .. सबकुछ छोड़कर /
हमारी जिद ,  हमारी  प्रार्थनाएं
सब  धरी की धरी रह गईं
हम दिदिया को रोक नहीं  पाएं /

बड़ी जल्दी थी उन्हें
पता नहीं  किस लोक जाना था /

रह - रहकर उनकी आँखें
कहीं दूर किसी प्रार्थना  में
डूब जाती थीं

अक्सर  एक नाम , एक चेहरा , एक इंतज़ार
उनके सफ़ेद  पड़ते
श्रीहीन    चेहरे  पर
अनचाहे  अतिथि की तरह
आ खड़ा होता था /

ऊपर से हंसती हुई दिदिया में
दुःख चुपचाप दहाड़े मारता  था
विकट  अकेलेपन में भी दिदिया ने
मंगल - गीत ही गाये  थे
औरों के लिए /

..... एक अलस्सुबह
दिदिया चली  गईं  थीं
आश्वस्त  हुए थे हम
दिदिया मुक्त हुईं
उन सबसे
जिनसे वे  आजीवन बंधी रहीं
हमने उनकी  स्मृतियों  की पोटली को
बांधकर  रख दिया था
हम उन्हें याद करना नहीं चाहते थे
क्योंकि
हम उन्हें बेहद प्यार करते थे ...../ 
उन्हें याद करना
दुःख के देश में
यात्रा पर निकलना था
हम यात्री नहीं थे
अब हम द्वीप बन चुके थे /