तुम ! तुम थे
या
कोई भुला भटका योगी
जो मुझे मिल गया था
किसी पुराने परिचित दुख की तरह /
मैं अकिंचन
तुम जैसे योगी का
क्या करूँ ?
न जाने किस तप से
विच्छिन्न होकर
तुम भटक रहे थे
हमारी दुनिया में /
किस राह की तलाश में थे
कौन - सी राह तुम्हें जाना था
कहाँ समझ पाई मैं ?
तुम्हारी विकलता
तुम्हें कहीं दूर ले जाती
और मैं सूखे पत्ते की तरह
तुम्हारी स्मृति से बुहार दी जाती /
तुम्हारी दुनिया में
ब्रह्मांड होता ,
पृथ्वी होती
वेद और शास्त्र होते
पर मैं ...............
आकाश गंगा की तरह
न जाने कहाँ लुप्त रहती ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें