गुरुवार, 8 नवंबर 2012

 दोस्तों  आज  हिंदी के महत्वपूर्ण  कवि  धूमिल की एक कविता " किस्सा जनतंत्र का" को आपसे साझा कर रही हूँ /

करछुल -
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है और जलता रहता है /

औरत
गवें  गवें  उठती है - गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है /
उसे कठवत में झाड़ती है /
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही ( पैठान तक नहीं छोड़ती )
सरर फरर बोलती है और बोलती रहती है /

बच्चे आँगन में -
आँगड़ बांगड़  खेलते हैं /
घोडा - हाथी  खेलते हैं
चोर -साव  खेलते हैं
राजा - रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ
कुछ  भी नहीं देखते
वे केवल रोटी  बेलते हैं और बेलते रहते हैं
एक छोटा - सा जोड़ भाग
गश्त खाती हुई आग के साथ - साथ
चलता है और चलता रहता

बडकू को एक
छोटकू को  आधा
परबत्ती  बाल किशनु  आधे में आधा
कुल रोटी  छै
और तभी  मुँह दुब्बर
दरबे में आता है - खाना तैयार है ?
उसके आगे  थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले  मुँह दुब्बर
पेट भर
पानी पिता है और लजाता है
कुल रोटी ती न
पहले उसे थाली खाती है
फिर  वह रोटी खता है /

और अब-
पौने दस बजे हैं -
कमरे की हर चीज
एक रटी हुई  रोजमर्रा धुन
दुहराने लगती है
वक्त घडी से निकलकर
अंगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में , एक दन्त टूटी  कंघी
बालों में गाने लगती है
दो आँखें दरवाजा खोलती हैं
दो बच्चे टाटा कहते हैं
एक फटेहाल कलफ कालर -
टांगों में अकड़  भरता है
और खटर - पटर एक  ढढढ़ा  साईकिल
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ
दफ्तर  जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
एक दर्द हौले से  हिरदै को हल गया
' ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को
चूमना
देखो, फिर भूल गया /'







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