दोस्तों आज हिंदी के महत्वपूर्ण कवि धूमिल की एक कविता " किस्सा जनतंत्र का" को आपसे साझा कर रही हूँ /
करछुल -
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है और जलता रहता है /
औरत
गवें गवें उठती है - गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है /
उसे कठवत में झाड़ती है /
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही ( पैठान तक नहीं छोड़ती )
सरर फरर बोलती है और बोलती रहती है /
बच्चे आँगन में -
आँगड़ बांगड़ खेलते हैं /
घोडा - हाथी खेलते हैं
चोर -साव खेलते हैं
राजा - रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ
कुछ भी नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं
एक छोटा - सा जोड़ भाग
गश्त खाती हुई आग के साथ - साथ
चलता है और चलता रहता
बडकू को एक
छोटकू को आधा
परबत्ती बाल किशनु आधे में आधा
कुल रोटी छै
और तभी मुँह दुब्बर
दरबे में आता है - खाना तैयार है ?
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँह दुब्बर
पेट भर
पानी पिता है और लजाता है
कुल रोटी ती न
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खता है /
और अब-
पौने दस बजे हैं -
कमरे की हर चीज
एक रटी हुई रोजमर्रा धुन
दुहराने लगती है
वक्त घडी से निकलकर
अंगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में , एक दन्त टूटी कंघी
बालों में गाने लगती है
दो आँखें दरवाजा खोलती हैं
दो बच्चे टाटा कहते हैं
एक फटेहाल कलफ कालर -
टांगों में अकड़ भरता है
और खटर - पटर एक ढढढ़ा साईकिल
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ
दफ्तर जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
एक दर्द हौले से हिरदै को हल गया
' ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को
चूमना
देखो, फिर भूल गया /'
करछुल -
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है और जलता रहता है /
औरत
गवें गवें उठती है - गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है /
उसे कठवत में झाड़ती है /
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही ( पैठान तक नहीं छोड़ती )
सरर फरर बोलती है और बोलती रहती है /
बच्चे आँगन में -
आँगड़ बांगड़ खेलते हैं /
घोडा - हाथी खेलते हैं
चोर -साव खेलते हैं
राजा - रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ
कुछ भी नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं
एक छोटा - सा जोड़ भाग
गश्त खाती हुई आग के साथ - साथ
चलता है और चलता रहता
बडकू को एक
छोटकू को आधा
परबत्ती बाल किशनु आधे में आधा
कुल रोटी छै
और तभी मुँह दुब्बर
दरबे में आता है - खाना तैयार है ?
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँह दुब्बर
पेट भर
पानी पिता है और लजाता है
कुल रोटी ती न
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खता है /
और अब-
पौने दस बजे हैं -
कमरे की हर चीज
एक रटी हुई रोजमर्रा धुन
दुहराने लगती है
वक्त घडी से निकलकर
अंगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में , एक दन्त टूटी कंघी
बालों में गाने लगती है
दो आँखें दरवाजा खोलती हैं
दो बच्चे टाटा कहते हैं
एक फटेहाल कलफ कालर -
टांगों में अकड़ भरता है
और खटर - पटर एक ढढढ़ा साईकिल
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ
दफ्तर जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
एक दर्द हौले से हिरदै को हल गया
' ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को
चूमना
देखो, फिर भूल गया /'
bahot badiya....accha laga dhoomil ki kaviya yaha dekh ke...
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