सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

दुख की गठरी

हर किसी के पास 
दुख की गठरी है 
किसी की छोटी है तो 
किसी के हिस्से बड़ी आई है .....

सब अपनी गठरी संभाले ....
एक दूसरे की गठरी को तौल रहे हैं 
और 
अपनी गठरी को एक दूसरे से भारी सिद्ध कर रहे हैं 

और दुख गठरी में बैठा उदास है ......
सोच रहा है 
कब गठरी खुले 
और वह चैन की सांस ले ///

रोज - रोज की नाप- तौल से 
ऊब चुका है वह



आँसुओं की सीलन 
अब बर्दाश्त  नहीं होती /

सोचता है 
कुछ दिनों के लिए 
परिंदों  की   तरह 
उड़ आया जाए.कहीं किसी दूर देश में ....

रविवार, 13 अक्टूबर 2013

मेरा गाँव

 हर रोज 
सवा एक बजे 
बलिया एक्सप्रेस 
छूटती  है सियालदह स्टेशन से /

उसका छूटना 
मुझे मेरी स्मृतियों के देश में ले जाता है 
जहाँ मेरा गाँव
अपने मांझी के पुल के साथ 
मेरे बाबा की तरह 
लाठी टेके 
मेरी राह देख रहा होता है /

मेरा छोटा - सा गाँव " कर्ण छपरा"
जिसके बारे में इतिहास अक्सर मौन रहा है ...
इतिहास से बेदखल मेरा गाँव
अक्सर मेरी स्मृतियों में 
मुखर रहता है /

गवाह रहा है वह 
मेरे  निर्वासन का ....
मेरी उस यात्रा का 
जिसमें सबकुछ मेरी हाथों से 
छूटता चला गया था /

मेरा गाँव स्तब्ध था 
आख़िरकार वह समझ नहीं पाया था कि
उसने साथ छोड़ा था मेरा 
या
मैं उसे छोड़कर चली आई थी 


लगातार एकांत से एकांतर की ओर....

साथ छूटने का दर्द 
मेरी आँखों में भी था 
और वह भी कुछ परेशान-सा था 
वह जानता था 
मेरा जाना
अब कभी  लौटना है /

मेरी आजी के साथ 
वह भी  बक़ुलहाँ स्टेशन तक 
दौड़ेदौड़े अपने खेतों के साथ 
 पहुँचा था / 

मेरी आजी .....
धुंधली यादों के साथ पीछे 
छूटती चली गईं थीं
पीछे घूमकर देखा तो 
मेरा गाँव  चुपचाप खड़ा था 
मेरी आजी को थामे...... 
और मैं तेज़ी से एक बिंदु में बदलती चली गई थी /

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

अपने दुखों के साथ...

मेज की दराज में 
अपने दुखों को सहेज कर रखा हूँ 
 जाने कैसा लगाव हो गया है इनसे 
छोड़ने का मन ही  नहीं करता /

साथी रहे हैं ये मेरे 
लंबे उदास दिनों के 
हारते हुए हर क्षण में 
इन्हीं को अपने पास खड़े पाया है /

सोचता हूँ 
अगर ये दुख  होते तो 
कैसा होता हमारा जीवन ?
कैसे कटते वे लंबे रास्ते 
जिन पर चलने के लिए 
मुझे अकेला छोड़ दिया गया था /

लोग  कारवाँ के साथ 
गुबार उड़ाते चले गये थे 
और.... मैं 
हाशिए पर टंगा रहा 
अपने दुखों के साथ /

शनिवार, 8 जून 2013

शब्द....

कुछ  शब्द ......
कितने पवित्र होते हैं 
जो ढँक लेते हैं अपने में 
धारण करने वाले की 
सारी चालाकियाँ , सारे छलकपट 
सारे पाप !

शब्दों के परिधान में 
कोई छुपा ले जाता है 
अपने सारे अपराध /


और शब्द ......
धीरे - धीरे अपना अर्थ खोने लगते हैं 
वे शर्मिंदा हैं 
अपने इस्तेमाल होने पर
शब्द ......
धीरे - धीरे चुक रहे हैं /

शुक्रवार, 10 मई 2013

वह चेहरा .....वह नाम

नीम बेहोशी की हालत में
एक अरसा गुजर गया था
केवल एक नाम .....एक चेहरा
वह भी कुछ धुंधला - सा
स्मृति - पटल पर बारबार 
दस्तक देता था /

अवचेतन मन  अपने 
बरसों के कारावास से ऊब चुका था 
अंधेरे की घुप्प परछाईयों में 
सदियों से वह चुप्पी  साधे बैठा था /

मैं जानता था उसकी 
इस ऊब और चुप्पी का अर्थ !
बात - बात में उतर आती 
उदासी की भी खबर थी मुझे /

जानता था मैं 
उन लंबी रातों को 
 कटने वाली दुपहरियों को 
और वह नीलकंठ भी मुझे याद था 
जो  जाने किसकी याद में 
अकेला आकाश को नापता रहता /

वह चेहरा ...... वह नाम 
किसी गुमनाम नदी की तरह था 
जिसमें उतरना 
दुख में डुबकी लगाना था /

वह चेहरा ...... वह नाम 
जो बरसों पहले 
अंधेरे के तहख़ाने में 
ढकेल दिया गया था 
जहाँ स्मृतियों की आवाजाही पर 
अघोषित पाबंदियाँ थीं/

वह चेहरा .....वह नाम 
जिसे मैं छोड़ आया था 
इतिहास के पीले पन्नों में 
अब वह अक्सर 
टंगा रहता है 
मेरे छाते के साथ दीवार पर 
उसके साथ टँगे रहते हैं -
दुख , स्मृति  और एक अनकही 
अधूरी - सी हँसी /
 महीनों से मान बेहद उदास है / इसे मैं एक बच्चे की तरह फुसला कर रखती हूँ / इस मन को कैसे समझाउँ कि जीने के लिए कुछ बहाने चाहिए और मेरे पास कोई बहाना नहीं है / मेरे आस - पास की दुनिया में कोई अपने बेटे के लिए जी रहा है तो कोई अपने सपने के लिए / सबके पास कुछ बहाने हैं जिंदगी जीने के लिए / मेरे पास  सपने हैं और  बहाने /