हर रोज
सवा एक बजे
बलिया एक्सप्रेस
छूटती है सियालदह स्टेशन से /
उसका छूटना
मुझे मेरी स्मृतियों के देश में ले जाता है
जहाँ मेरा गाँव
अपने मांझी के पुल के साथ
मेरे बाबा की तरह
लाठी टेके
मेरी राह देख रहा होता है /
मेरा छोटा - सा गाँव " कर्ण छपरा"
जिसके बारे में इतिहास अक्सर मौन रहा है ...
इतिहास से बेदखल मेरा गाँव
अक्सर मेरी स्मृतियों में
मुखर रहता है /
गवाह रहा है वह
मेरे निर्वासन का ....
मेरी उस यात्रा का
जिसमें सबकुछ मेरी हाथों से
छूटता चला गया था /
मेरा गाँव स्तब्ध था
आख़िरकार वह समझ नहीं पाया था कि
उसने साथ छोड़ा था मेरा
या
मैं उसे छोड़कर चली आई थी
लगातार एकांत से एकांतर की ओर....
साथ छूटने का दर्द
मेरी आँखों में भी था
और वह भी कुछ परेशान-सा था
वह जानता था
मेरा जाना
अब कभी न लौटना है /
मेरी आजी के साथ
वह भी बक़ुलहाँ स्टेशन तक
दौड़े- दौड़े अपने खेतों के साथ
आ पहुँचा था /
मेरी आजी .....
धुंधली यादों के साथ पीछे
छूटती चली गईं थीं
पीछे घूमकर देखा तो
मेरा गाँव चुपचाप खड़ा था
मेरी आजी को थामे......
और मैं तेज़ी से एक बिंदु में बदलती चली गई थी /
सवा एक बजे
बलिया एक्सप्रेस
छूटती है सियालदह स्टेशन से /
उसका छूटना
मुझे मेरी स्मृतियों के देश में ले जाता है
जहाँ मेरा गाँव
अपने मांझी के पुल के साथ
मेरे बाबा की तरह
लाठी टेके
मेरी राह देख रहा होता है /
मेरा छोटा - सा गाँव " कर्ण छपरा"
जिसके बारे में इतिहास अक्सर मौन रहा है ...
इतिहास से बेदखल मेरा गाँव
अक्सर मेरी स्मृतियों में
मुखर रहता है /
गवाह रहा है वह
मेरे निर्वासन का ....
मेरी उस यात्रा का
जिसमें सबकुछ मेरी हाथों से
छूटता चला गया था /
मेरा गाँव स्तब्ध था
आख़िरकार वह समझ नहीं पाया था कि
उसने साथ छोड़ा था मेरा
मैं उसे छोड़कर चली आई थी
लगातार एकांत से एकांतर की ओर....
साथ छूटने का दर्द
मेरी आँखों में भी था
और वह भी कुछ परेशान-सा था
वह जानता था
मेरा जाना
अब कभी न लौटना है /
मेरी आजी के साथ
वह भी बक़ुलहाँ स्टेशन तक
दौड़े- दौड़े अपने खेतों के साथ
आ पहुँचा था /
मेरी आजी .....
धुंधली यादों के साथ पीछे
छूटती चली गईं थीं
पीछे घूमकर देखा तो
मेरा गाँव चुपचाप खड़ा था
मेरी आजी को थामे......
और मैं तेज़ी से एक बिंदु में बदलती चली गई थी /
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें