अभी हाल ही में वी एस नाय पाल को यूरोपीय लेखक संसद के द्वारा तुर्की में आयोजित एक कार्यक्रम में उदघाटन के लिए बुलाया जाना था। लेकिन वहां के स्थानीय तुर्की लेखकों और धार्मिक प्रेस के दबाव की वजह से उनके बदले ब्रिटिश उपन्यासकार हरी कुंजरू को उदघाटन भाषण देने के लिए बुलाया गया / हम सभी यह जानते हैं की वी. एस नायेपाल इस्लाम की निंदा करते रहे हैं और इसीलिये तुर्की में उनके बुलाए जाने का विरोध किया गया और धार्मिक संघठनो की तरफ से यह कहा गया कि उनकी मौजूदगी इस्लाम का अपमान है।अब यह सोचने वाली बात है कि हम क्या तालिबानी संस्कृति से उबर नहीं सकते ?आखिर कब तक इन ताकतों की हर बात को हम यूँ ही मानते रहेंगे ? क्या एक लेखक को अपनी विचारधारा से दूरी बना लेनी चाहिए ? लेखकीय स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी पर ये धार्मिक संघठन जिस तरीके से आए दिन हमले कर रहे हैं। वह चिंता वाली बात है / क्या इन फतवों का जवाब नहीं दिया जा सकता?
इस घटना से साफ़ पता चलता है कि इस्लामिक रुद्धिवाद या कट्टरवाद से यूरोप भी कितना डरता है / यह भी सोचने वाली बात है कि वह इसे रोकने या इसका प्रतिवाद करने के बजाए इसे हवा भी दे रहा है आज जरुरत इस बात की है कि हमें किसी भी प्रकार का रुद्धिवाद चाहे वह हिन्दू हो या इस्लामिक हो उसका विरोध करना चाहिए/
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