शुक्रवार, 10 मई 2013

वह चेहरा .....वह नाम

नीम बेहोशी की हालत में
एक अरसा गुजर गया था
केवल एक नाम .....एक चेहरा
वह भी कुछ धुंधला - सा
स्मृति - पटल पर बारबार 
दस्तक देता था /

अवचेतन मन  अपने 
बरसों के कारावास से ऊब चुका था 
अंधेरे की घुप्प परछाईयों में 
सदियों से वह चुप्पी  साधे बैठा था /

मैं जानता था उसकी 
इस ऊब और चुप्पी का अर्थ !
बात - बात में उतर आती 
उदासी की भी खबर थी मुझे /

जानता था मैं 
उन लंबी रातों को 
 कटने वाली दुपहरियों को 
और वह नीलकंठ भी मुझे याद था 
जो  जाने किसकी याद में 
अकेला आकाश को नापता रहता /

वह चेहरा ...... वह नाम 
किसी गुमनाम नदी की तरह था 
जिसमें उतरना 
दुख में डुबकी लगाना था /

वह चेहरा ...... वह नाम 
जो बरसों पहले 
अंधेरे के तहख़ाने में 
ढकेल दिया गया था 
जहाँ स्मृतियों की आवाजाही पर 
अघोषित पाबंदियाँ थीं/

वह चेहरा .....वह नाम 
जिसे मैं छोड़ आया था 
इतिहास के पीले पन्नों में 
अब वह अक्सर 
टंगा रहता है 
मेरे छाते के साथ दीवार पर 
उसके साथ टँगे रहते हैं -
दुख , स्मृति  और एक अनकही 
अधूरी - सी हँसी /
 महीनों से मान बेहद उदास है / इसे मैं एक बच्चे की तरह फुसला कर रखती हूँ / इस मन को कैसे समझाउँ कि जीने के लिए कुछ बहाने चाहिए और मेरे पास कोई बहाना नहीं है / मेरे आस - पास की दुनिया में कोई अपने बेटे के लिए जी रहा है तो कोई अपने सपने के लिए / सबके पास कुछ बहाने हैं जिंदगी जीने के लिए / मेरे पास  सपने हैं और  बहाने / 

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

रामअवध उदास है

रामअवध उदास  है 
सोच रहा है 
कैसा भयावह समय है 
कवि और सत्ता में 
कितना बेहतर  तालमेल है 


हमारा कवि चिंतित होता है 
अपनी कविताओं में 
हमारी भूख को लेकर/
हमारी पीड़ा उसे बेचैन करती है 
हमारे संघर्ष में वह
उबाल ख़ाता है गर्म लहू की तरह /

वह बार - बार क्रांति की बात करता है 
सत्ता को आँखें तरेरता है /

हम खुश होते हैं 
कोई तो है जो 
हमारे लिए प्रतिबद्ध है 
हमारी लड़ाई में कहीं  कहीं शरीक है /

पर एक दिन पता चलता है 
हमारे समय की निरंकुश सत्‍ता एँ
पुरस्कार बाँट रही हैं 
हमारा कवि 
पुरस्कारों को सर झुका कर 
ग्रहण कर रहा है 
कवि अभिभूत है 
सत्ता का आतिथ्य ग्रहण करके /
प्रशस्ति गा रहा है 
कृत  हो रहा है 
आख़िरकार सत्ता ने 
उसकी पहचान कर ली है /
कवि जानता है
पहचान ज़रूरी है :
लड़ाई नहीं /
पहचान से ही 
रास्ते खुलेंगे 
इतिहास में दाखिल होने के लिए /
कवि बेचैन है 
सत्ता मुग्ध है 
पर रामअवध उदास है 
वह इतिहास नहीं बनना चाहता /

मंगलवार, 26 मार्च 2013

योगी

तुम ! तुम थे 
             या 
कोई भुला भटका योगी 
जो मुझे मिल गया था 
किसी पुराने परिचित दुख की तरह /

सोच में पड़ गई थी 
मैं अकिंचन 
तुम जैसे योगी का 
                  क्या करूँ ?

   जाने  किस   से 
 विच्छिन्न  होकर 
तुम भटक रहे थे 
हमारी दुनिया में /

किस राह की तलाश में थे 
कौन - सी राह तुम्हें जाना था 
कहाँ समझ पाई मैं ?




तुम्हारी विकलता 
तुम्हें कहीं दूर ले जाती 
और मैं सूखे  पत्ते की तरह 
तुम्हारी स्मृति  से बुहार दी जाती    /

तुम्हारी दुनिया में 
             ब्रह्मांड  होता ,
                        पृथ्वी होती 
वेद और शास्त्र होते 
पर मैं ...............
आकाश गंगा की तरह 
 जाने कहाँ लुप्त रहती ?

सोमवार, 18 मार्च 2013

जंगल रो रहा है !

पृथ्वी के उस आख़िरी छोर पर 
खड़ा वह मासूम  जंगल 
 जाने कब से सिसक रहा है 

समझ में नहीं आता 
जंगल को ढा  
कैसे बंधाउं?

उसका दुख समझता हूं 
मैं भी तो एक पिता हूं
मुझे भी अपने बेटे के लिए 
कुछ हरियाली बचानी है 
तोतों के उस झुंड को 
आख़िरकार 
एक अमरूद का पेड़ तो देना ही है /

जंगल रो रहा है 
वे   रहे हैं 
वे सभ्यता के मिशन पर हैं 
संस्कृति को बचाने की मुहिम पर निकले हैं  /

जंगल  रहा है .......