मंगलवार, 29 नवंबर 2011

मुहावरा का बासी पड़ना

जिंदगी उसी की है
जो किसी का हो  गया -
यह मुहावरा अब बासी पड़ता जा रहा है
कोई किसी का नहीं होता -
जिंदगी का फलसफा तो यही कहता है /

जिंदगी के फलसफे में
 तजुर्बे ने भी हाँ में हाँ मिला दी है
अब कहाँ गुंजाइश है
बहस करने की ?
कुछ अपने तर्क देने की  
कुछ औरों की सुनने की

जिंदगी के तजुर्बे ने फलसफे से दोस्ती जो कर ली है
सच कहूँ दोस्तों ! यकीन करोगे न
तुम्हें नहीं लगता कि यक़ीनन  
अब जिंदगी का मुहावरा बासी पड़ता जा रहा है / 

रविवार, 27 नवंबर 2011

अदना आदमी की चिंता

कहते हैं समय बड़ा बलवान होता है
पर उसकी लड़ाई मेरे जैसे अदने
आदमी से क्यों है ?
मैं तो उसे  चुनौती नहीं देता
और न ही उसको ललकारता हूँ
न ही देता हूँ देख लेने की धमकी
मैं तो चुपचाप सिर झुकाए
निकल आता हूँ उसके
सामने से /

जनता हूँ
समय से मुठभेड़ करना
मेरे जैसे अदने आदमी को
शोभा नहीं देता
पर समय
वह कहाँ छोड़ता है मुझे

ला पटकता है
 स्मृतियों के घने बीहड़ वन में
जहाँ   अतीत के फडफडाते इतिहास के
   पक्षी
बेचैन होकर
अपने डैने खोलते हैं /

मैं अदना -सा  आदमी हूँ
वर्तमान में जीता  और मरता हूँ
बहसों , संवादों
से दूर भागता हूँ
जनता हूँ
आज
ये मात्र खोखले शब्द बन चुके हैं /
जिनके पेट भरे हैं
दिमाग भरे हैं
ज्ञान और सूचनाओं से
 जो दूसरों को आतंकित करते हैं
वे प्रबुद्ध जन
जो  इन्तेक्चुअल्स का टैग  लगाये
समय के बाजार में बिक रहे हैं
जो बहस और संवाद के शोर में
नगाड़ा  बजा रहे हैं
उनकी चिंता की  लकीरें बस
टेलीविजन  के परदे पर दिखती हैं /

मैं भाग रहा हूँ
या
भगाया जा रहा हूँ  उनके द्वारा
कौन जनता है
समय कब मेरे सामने खड़ा हो जावे
और
मैं चुपचाप सिर  झुकाए
उसके सामने से निकल  आऊं  

शनिवार, 26 नवंबर 2011

केदारनाथ सिंह की एक छोटी -सी कविता - 'जाना '

मैं जा रही हूँ ---- उसने कहा
  जाओ  ---- मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है / 

भारतीय लोकतंत्र आखिरकार कहाँ जा रहा है ?

आज- कल हिंदुस्तान में जो घट रहा है वह वाकई यह सोचने पर मजबूर कर रहा है कि आखिर हमारे देश में लोकतंत्र को सही दिशा कब मिलेगी ?  अभी हाल में कुछ घटनाएं ऐसी घटी हैं  जिसका किसी भी रूप में समर्थन नहीं किया जा सकता है / कुछ दिनों से इस देश में    अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर या विरोध के नाम पर किसी पर जूते  फेंकना  , जूते दिखाना , थप्पड़  मारना आदि  ऐसी असामाजिक हरकतें हो रही हैं  जो लोकतंत्र में आस्था रखनेवालों को और उनको भी जो अपने आपको सभ्य समाज का नागरिक मानते हैं , कुछ सोचने पर मजबूर करतीं हैं / यहाँ  सिर्फ सोचना ही नहीं है बल्कि ऐसी घटनाओं का पुरजोर विरोध होना चाहिए / हर राजनीतिक पार्टी का अपना एक  अजेंडा होता है /उसकी अपनी नीतियाँ होती हैं /अगर उसकी नीतियाँ गलत हैं तो उसका विरोध होना चाहिए / पर विरोध के नाम पर किसी को थप्पड़ मारना या उस पर जूते चलाना कहाँ तक जायज है ? अगर आक्रोश है तो किसी एक व्यक्ति पर वह क्यों निकले ? लोकतंत्र में विरोध के और भी तरीके हैं / भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ इस प्रकार का आक्रोश हमें कहाँ ले जायेगा ? क्या इससे कोई राह निकलेगी?

अब एक अन्य मुद्दे पर आपलोगों से कुछ साझा करना चाहती हूँ / अभी हमारे कुछ राज्य  माओवाद से लगातार  जूझ और निपट रहे हैं / अब तक हजारों सुरक्षा कर्मी , पुलिस कर्मी ,निर्दोष लोग इस माओवाद की हिंसक कार्रवाइयों  में अपने  प्राण गवां चुके हैं / अभी किशन जी को एक मुठभेड़ में मार  गिराया गया है /अब देखिये उसको लेकर देश में राजनीति होनी शुरू हो गई है / इसको राजनीति का रंग दिया जाने लगा है / अब देखिये इसको लेकर मानवाधिकारों की बात होने लगी है / अरे भाई ! जब निर्दोषों को माओवादी मार रहे थे तब मानवाधिकार कहाँ तेल लेने चला गया  था ? उस समय किशनजी या   माओवादिओं को आपलोगों ने क्यों नहीं समझाया कि निर्दोषों को मारना भी मानवधिकार का उल्लंघन  है /  

रविवार, 20 नवंबर 2011

केदारनाथ सिंह की एक कविता

    इस शहर को इसकी  नींव की सारी
            ऊष्मा समेत
           यहाँ से उठाओ
      और रख दो मेरे कंधे पर
मैं इसे ले जाना चाहता हूँ किसी  मेकेनिक के पास

        मुझे कोई भ्रम नहीं
 कि मैं इसे ढोकर पहुंचा दूंगा कहीं और
     या अपने किसी करिश्मे से
     बचा लूँगा इस शहर को

      मैं तो बस इसके कौओं को
       उनका उच्चारण 
      इसके पानी को
     उसका पानीपन
     इसकी त्वचा को
उसका स्पर्श  लौटाना चाहता हूँ

मैं तो बस इस शहर की
लाखोंलाख  चींटियों की मूल रुलाई का
हिंदी में अनुवाद करना चाहता हूँ / 

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

शायद कोई आने वाला है .........

     एक    मुट्ठी  भर  रंग

       फ़ेंक कर सूरज

   दूर कहीं छिपकर

   सोने चला  गया

    उस रंग से
आसमान ने अपना  चूनर
     रंग लिया
और वह चूनर
ओढ़ संध्या  धीरे - धीरे
उतर आई धरती के आँगन में

वृक्षों की  फुनगियों ने
सिर हिलाकर स्वागत किया
और लगी गाने मंगल गान
उस गान में डूब गई
दिन भर की थकान /

तभी दूर कहीं झिलमिलाने लगा
सपनों का संसार
तारे उग आये
चाँद आसमान के उस कोने में खड़ा
मुस्कुराने लगा /

 शायद कोई आने वाला है .........
चुपके से कान में
लजाती हुई हवा कह गई ....

१८.१०.11

बुधवार, 12 अक्टूबर 2011

आडवाणी के रथयात्रा के मायने

  आडवाणी जी रथयात्रा पर निकल चुके हैं / पर सोचनेवाली बात यह है कि इससे बीजेपी को कितना  फायदा  होगा / वैसे भी बीजेपी के पास कोई मजबूत अजेंडा नहीं है /वह देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी तो है पर उसकी भूमिका उतनी दमदार नहीं है / इस पार्टी में कोई ऐसा नेता नहीं है जिसे सर्वसम्मति से सब स्वीकार कर सके / आडवाणी जी खुद अपने आपको कभी-कभार  प्रधानमंत्री के रूप में  प्रोमोट करते रहते हैं पर अक्सर उनके इस  प्रोमोशंन पर हल्ला मचता रहता है / इस दौड़ में मोदी भी दौड़ रहे हैं तो गडकरी भी लगे हाथ इसमें शामिल हो जा रहे हैं /   आडवाणी जी रथयात्रा के पीछे अपनी और अपनी पार्टी की यह मंशा बता रहे हैं कि इससे भ्रष्टाचार  को खतम करने में मदद मिलेगी और जनता  कांग्रेस के खिलाफ लामबंद होगी /  पर इस रथयात्रा से कोई फरक नहीं पड़ने वाला है / हाँ , बीजेपी के कार्यकर्ताओं में एक जोश जागेगा /