रविवार, 13 अप्रैल 2014

माई री। ... मोरा माइका छूटा जाए।

  माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए। …

माटी की देह
माटी में मिल जाए
गगन घटा में
मोरा पाखी उड़ जाए

 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।






आन देस में
मन न लागे
मेढ बार - बार
टूट  जाए

 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।

संगी साथी सब बिराने
रैन  बसेरा का
न कोई
ठौर - ठिकाना /

  माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।







 अपयश  देत
कलंक लगावे
ता - ता करके ताली
बजावे


 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।


माया  टूटी
काया छूटी 
टूटे सारे नेह के बंध 

 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।

वह आदमी

 समय के घोड़े बड़ी तेजी से भागे जा रहे थे
पता नहीं इन घोड़ों की लगाम
किनके हाथों में थी।







और
पृथ्वी
उदास थी
आज वह घूमते - घूमते उस आदमी से टकरा गई थी
जो अपने लुप्त इतिहास के सीलन भरे कैद से
ऊब कर
समुन्द्र के किनारे बैठा लहरें गिन  रहा था  /



वह खुश था
अपनी मुक्ति पर ....
उसके चेहरे पर
हँस रही थीं  रेत की मछलियाँ। ।

सागर की गोद में
उतरता सूरज
आश्वस्त था
वह आदमी हार नहीं मानेगा

भले ही
अदृश्य ताकतें
दिशाएं तय कर रहीं थीं
और समूची सदी
मौन होकर
एक  युग के अंत के
घोषणापत्र  पर हस्ताक्षर
 कर रही थी /


पर
दूर  कहीं किसी ने बंसी की धुन छेड़ी  थी









 चौंका था समूचा जंगल
और
दौड़ पड़ा था वह आदमी
उस मृगराज के पास
जो सदियों से
चाँद की दूधिया मुस्कान  में
अपनी ही मादक परिमल से
उन्मादित हो
जंगलों में पुकारा करता था
   अपनी प्रिया को /




इतिहास अपने पीले पन्नों में
न जाने
कितनी मौन आवाजों को
दबाये
एक सदी की यात्रा पर चला गया था
और वह आदमी
अभी भी
नुकक्ड़ पर बैठा
अपनी बेटी के लिए
एक सपना बुन  रहा है /

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था / जाँ निसार अख़्तर


ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था/

मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था/


शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था/

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था/

पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था/

शनिवार, 29 मार्च 2014

भोला - सा तर्क

 सफ़ेद  चील       झपट्टा    मारती  है
        और           लेकर        उड़      जाती है
            अपने          पंजों   में
                              एक         मासूम      सा      चूजा     ....... /


  दूर  कहीं  एक    सूखा  पत्ता
दरख्त  से  टूटता  है
और  चीख  उठती   है
  टिटहरी। ....


मिथ  से निकल आते हैं राम
अपनी  मर्यादा के साथ
और सीता को
फिर से याद आता है
अपना निर्वासन। .




सदियों से
एक  भोला - सा तर्क
हत्या       करता   रहा    है
   एक  निष्पाप
   जीवन  का । ....
     


.... ??

घना अँधेरा
लाल लकीरें

काली परछाइयाँ
नकाब पोश   चेहरे


ठूँठ  खड़ा वह पेड़
उतरता पतझड़
बारूद सी हवा
नसों को चीरती




तड़पता पक्षी
टूट ती  साँस
सूना  आकाश
धीमा फैलता जहर
उतरता गहन अंधकार
डूबता मन पारावार  /

रविवार, 16 मार्च 2014

संतरे रंग वाली मेरी प्रेमिका

मैं संतरे रंग वाली अपनी  प्रेमिका को
 पृथ्वी के आखिरी छोर पर बने
उस घर  में छोड  आया था
जिसकी दीवारें सफ़ेद थीं
और
छत कत्थई - हरे रंगों में
टंगा  रहता था
उदास आकाश को थामे /


और भूल गया था उसे
जैसे भूल जाते हैं हम
अपना चश्मा
या
अपनी छड़ी
कहीं रखकर
और चाह कर भी
याद नहीं रख पाते
कहाँ रखा था हमने। …

और यूँ ही
धीरे - धीरे
हम भूलने लगते हैं
कब हमने खुलकर हंसा था
कब हमने प्यार किया था
केवल प्यार के लिए /

कब देखा था
चीटियों को पहाड़ लांघते हुए
और
कब देखा था
तुतलाती बोली में
किसी बच्चे को
मम माँ बोलते हुए /








कब देखा था
एक मुट्ठी  सुख के लिए
अपनी पत्नी का
अपने पास आ बैठना /

सब कुछ भूलते हुए
हम  अपने - अपने  अरण्य  में पहुँचते हैं
जहाँ रह जाती हैं
केवल स्मृतियाँ
प्रेम की , अपने अकेलेपन की /

सोचता हूँ
इन बेहद एकांत क्षणों में
जब पृथ्वी अपनी परिक्रमा से
ऊब कर
थक कर
उस पेड़ के फुनगियों पर
जब उतरती होगी
तब मेरी संतरे रंग वाली  प्रेमिका
शायद मेरी बेटी को
अपनी गोद में उठाये
लोरी सुना रही होगी
और मेरी बेटी
मचल जाती होगी
चाँद को मुट्ठी में लेने के लिए
तब
मेरी संतरे रंग वाली  प्रेमिका
चाँद बन जाती होगी /