शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

अनाम - सा नाम

घुटती  हुई साँसों के साथ 
उसने अंतिम बार देखा था मुझे 
आँसू का एक कतरा
उसकी बंद होती आँखों से 
ओस की बूँद की तरह
मेरी हथेली पर  गिरा था ..

मैं अकिंचन - सा 
उसकी ठंडी हो चुकी हथेलियों 
                   को भिंचे 
प्रश्नों के घेरे में खड़ा था /

प्रश्न .... जिनसे मैं 
अक्सर पीछा छुड़ाया करता था 
आज मौन होकर 
राख की ढेर में बदल चुके थे ....

वह जा चुकी थी 
प्रश्नों के दायरे से बाहर...
कभी हंसते हुए उसने पूछा था 
तुम मुझे प्यार करते हो ....
मैं सकपका गया था 
अपनी चोरी पकड़े जाने के डर से 
मैने उसके सर की कसम खा ली थी 
वह बेतहासा हंस पड़ी थी /

मैं कहाँ समझ पाया था 
उसकी इस हँसी का राज...../

मैं अपनी दुनिया में 
रोशनी के झिलमिलाते 
 ख्वाबों को ज़मीं पर 
उतार रहा था ...
और वह
नीम बेहोशी की हालत में 
अंधेरे सुरंग में उतरते चली गई थी .../

वह....
शायद उसका कोई 
नाम था ....
पर उसने अपना नाम तो 
बरसों पहले ही खो दिया था /
मेरी अम्मा के लिए 
वह " मेरी पत्नी " थी 
मेरे लिए 
वह मेरे बेटे की " माँथी /

उसे मैं विदा कर रहा हूँ 
अपने घर से 
जिसे वह अपना घर मानती रही थी /

उसे दे रहा हूँ मैं 
एक निरभ्र आकाश...
एक खिलखिलाती नदी ...
और 
एक अनाम - सा नाम ......

सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

दुख की गठरी

हर किसी के पास 
दुख की गठरी है 
किसी की छोटी है तो 
किसी के हिस्से बड़ी आई है .....

सब अपनी गठरी संभाले ....
एक दूसरे की गठरी को तौल रहे हैं 
और 
अपनी गठरी को एक दूसरे से भारी सिद्ध कर रहे हैं 

और दुख गठरी में बैठा उदास है ......
सोच रहा है 
कब गठरी खुले 
और वह चैन की सांस ले ///

रोज - रोज की नाप- तौल से 
ऊब चुका है वह



आँसुओं की सीलन 
अब बर्दाश्त  नहीं होती /

सोचता है 
कुछ दिनों के लिए 
परिंदों  की   तरह 
उड़ आया जाए.कहीं किसी दूर देश में ....

रविवार, 13 अक्टूबर 2013

मेरा गाँव

 हर रोज 
सवा एक बजे 
बलिया एक्सप्रेस 
छूटती  है सियालदह स्टेशन से /

उसका छूटना 
मुझे मेरी स्मृतियों के देश में ले जाता है 
जहाँ मेरा गाँव
अपने मांझी के पुल के साथ 
मेरे बाबा की तरह 
लाठी टेके 
मेरी राह देख रहा होता है /

मेरा छोटा - सा गाँव " कर्ण छपरा"
जिसके बारे में इतिहास अक्सर मौन रहा है ...
इतिहास से बेदखल मेरा गाँव
अक्सर मेरी स्मृतियों में 
मुखर रहता है /

गवाह रहा है वह 
मेरे  निर्वासन का ....
मेरी उस यात्रा का 
जिसमें सबकुछ मेरी हाथों से 
छूटता चला गया था /

मेरा गाँव स्तब्ध था 
आख़िरकार वह समझ नहीं पाया था कि
उसने साथ छोड़ा था मेरा 
या
मैं उसे छोड़कर चली आई थी 


लगातार एकांत से एकांतर की ओर....

साथ छूटने का दर्द 
मेरी आँखों में भी था 
और वह भी कुछ परेशान-सा था 
वह जानता था 
मेरा जाना
अब कभी  लौटना है /

मेरी आजी के साथ 
वह भी  बक़ुलहाँ स्टेशन तक 
दौड़ेदौड़े अपने खेतों के साथ 
 पहुँचा था / 

मेरी आजी .....
धुंधली यादों के साथ पीछे 
छूटती चली गईं थीं
पीछे घूमकर देखा तो 
मेरा गाँव  चुपचाप खड़ा था 
मेरी आजी को थामे...... 
और मैं तेज़ी से एक बिंदु में बदलती चली गई थी /

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

अपने दुखों के साथ...

मेज की दराज में 
अपने दुखों को सहेज कर रखा हूँ 
 जाने कैसा लगाव हो गया है इनसे 
छोड़ने का मन ही  नहीं करता /

साथी रहे हैं ये मेरे 
लंबे उदास दिनों के 
हारते हुए हर क्षण में 
इन्हीं को अपने पास खड़े पाया है /

सोचता हूँ 
अगर ये दुख  होते तो 
कैसा होता हमारा जीवन ?
कैसे कटते वे लंबे रास्ते 
जिन पर चलने के लिए 
मुझे अकेला छोड़ दिया गया था /

लोग  कारवाँ के साथ 
गुबार उड़ाते चले गये थे 
और.... मैं 
हाशिए पर टंगा रहा 
अपने दुखों के साथ /