शनिवार, 1 दिसंबर 2012

ज़िंदा हूँ मैं ?

  मैं  अपनी  मुट्ठी  में कुछ सपने लेकर
 गाँव  से शहर  आया था
सोचा था सपने पूरे  होते ही
गाँव लौट जाऊंगा /
साल दर साल बीते
मैं गाँव  लौट नहीं पाया
मेरे सपने हाथ की लकीरों में
कहीं खो गएँ

सोचता हूँ
हिसाब भी लगता हूँ
इन गुजरे हुए साल , महीनों और दिनों का
जो किसी पुल के  खम्भे की तरह

धड़ा धड़  गुजर गए
और इन गुजरे  हुए  सालों , महीनों और दिनों को
मैं सलीब की तरह अपने कन्धों पर उठाये
भागता रहा , भागता रहा , भागता रहा /

आज  मैं बूढ़ा  हो चला हूँ
मेरे सपने भी अब बुढा  गए हैं
  झुर्रियों से थरथराते  हुए
अक्सर   स्मृतियों  के बियाबान में
चला जाता हूँ
जहाँ
कुछ चेहरे  याद आते हैं
जो अब बिछुड़ चुके हैं /

सोचता हूँ
वे चेहरे  जिनसे मैं प्यार करता था
ज़िन्दगी के घुमावदार  रास्तों पर
न जाने किस मोड़ पर
मुझसे छूट  गएँ /

आज  मैं निर्जन टापू पर छोड़ दिए गए
उस आदमी की तरह जिन्दा हूँ
जिसे अब कहीं नहीं लौटना है /

सपने ! सपने ! सपने!
सपनों की बहुत बड़ी कीमत
चुकानी पड़ती है दोस्तों !
सपने तो जिन्दा हैं अब भी
मेरी बूढी दिपदिपाती आँखों में
पर मेरे अपने मुझसे खो गए हैं
मैं रोता हूँ उस मासूम बच्चे की तरह
जिसका प्यारा खिलौना टूटकर चकनाचूर  हो गया है /

मेरी सिसकियों में
 प्रार्थनाएँ  गूंज रही होती हैं
मैं मन ही मन बुदबुदाता हूँ
कुछ नाम , कुछ चेहरे
जो मेरी आँखों में आँसू
की तरह अटके हुए हैं /

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