शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

पहाड़ भी रोते हैं।

 पहाड़ भी  रोते  हैं 
एक दूसरे से गले मिलकर 
जब कोई स्त्री 
अपने पति को खत लिखती है 
और फिर चुपचाप 
एक आईने में 
अपना चेहरा देखती है 
आईना बताता है 
समय की रफ़्तार 
और चुपके से 
स्त्री को धकेल देता है 
पहाड़ों के पास। … 

पहाड़ … 
खड़े हैं चुप्पी साधे  
उनके पास 
रोने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं है।

पहाड़  भी रोते हैं।  





मंगलवार, 22 जुलाई 2014

यह कौन - सी जगह है दोस्तों। .... जहाँ अकेलेपन के  अलावा कुछ नहीं /  अकेलेपन को साथ देने के लिए ये पहाड़ हैं जो  न जाने कितनी सदियों से सर्द में लिपटे मौन  खड़े हैं / इनके पास न मेरे अकेलेपन का कोई हल है न  मेरे सवालों का कोई जवाब नहीं /

इस बिराने में कुछ अच्छा नहीं लग रहा है / वक्त है कि  मानों कहीं ठहर - सा गया है / न पढ़ने में मन लग रहा है न कुछ सार्थक लिखने में / इस वीराने की रखवाली कर रही हूँ मैं /  अजीब - सा दौर है / आछे दिन पाछे गए /

मंगलवार, 6 मई 2014

ভালো আছ তো ?

ও  আমার মনে মানুষ। ..
ভালো আছ তো ?

আমি যে বিসর্জন দিলম সব মন প্রাণ তোমার প্রেমে / 
হারালাম নিজেকে তোমার  খোজে 



কথাযে যে  গেলে  তুমি 
সব বন্ধন ছিন্ন করে   ? 
কিছুই  চাই না
 কিছুই চাই না 
আমার মনে মানুষ 
তুমি সুধু ভালো থেক 
মন প্রাণ দিয়ে
 ভালো থেক ভালো থেক / 

रविवार, 13 अप्रैल 2014

माई री। ... मोरा माइका छूटा जाए।

  माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए। …

माटी की देह
माटी में मिल जाए
गगन घटा में
मोरा पाखी उड़ जाए

 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।






आन देस में
मन न लागे
मेढ बार - बार
टूट  जाए

 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।

संगी साथी सब बिराने
रैन  बसेरा का
न कोई
ठौर - ठिकाना /

  माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।







 अपयश  देत
कलंक लगावे
ता - ता करके ताली
बजावे


 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।


माया  टूटी
काया छूटी 
टूटे सारे नेह के बंध 

 माई री। ...
मोरा  माइका  छूटा जाए।

वह आदमी

 समय के घोड़े बड़ी तेजी से भागे जा रहे थे
पता नहीं इन घोड़ों की लगाम
किनके हाथों में थी।







और
पृथ्वी
उदास थी
आज वह घूमते - घूमते उस आदमी से टकरा गई थी
जो अपने लुप्त इतिहास के सीलन भरे कैद से
ऊब कर
समुन्द्र के किनारे बैठा लहरें गिन  रहा था  /



वह खुश था
अपनी मुक्ति पर ....
उसके चेहरे पर
हँस रही थीं  रेत की मछलियाँ। ।

सागर की गोद में
उतरता सूरज
आश्वस्त था
वह आदमी हार नहीं मानेगा

भले ही
अदृश्य ताकतें
दिशाएं तय कर रहीं थीं
और समूची सदी
मौन होकर
एक  युग के अंत के
घोषणापत्र  पर हस्ताक्षर
 कर रही थी /


पर
दूर  कहीं किसी ने बंसी की धुन छेड़ी  थी









 चौंका था समूचा जंगल
और
दौड़ पड़ा था वह आदमी
उस मृगराज के पास
जो सदियों से
चाँद की दूधिया मुस्कान  में
अपनी ही मादक परिमल से
उन्मादित हो
जंगलों में पुकारा करता था
   अपनी प्रिया को /




इतिहास अपने पीले पन्नों में
न जाने
कितनी मौन आवाजों को
दबाये
एक सदी की यात्रा पर चला गया था
और वह आदमी
अभी भी
नुकक्ड़ पर बैठा
अपनी बेटी के लिए
एक सपना बुन  रहा है /

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था / जाँ निसार अख़्तर


ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था/

मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था/


शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था/

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था/

पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था/