शनिवार, 18 दिसंबर 2010

छात्र राजनीति के नाम पर रक्तपात का दौर

   पश्चिम बंगाल में जैसे - जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आ रही है वैसे - वैसे यहाँ का  माहौल   का तापमान बढ़ रहा है इस तापमान की आंच  से छात्र भी नहीं बच  paa  रहे हैं बंगाल में छात्र राजनीति के नाम पर जो चल रहा है उसे  सभ्य व् सुसंस्कृत समाज में स्वीकार नहीं जा सकता / यह  कैसी  राजनीति है जो हिंसा व् रक्तपात के जरिये  अपना भविष्य   तय करेगी / छात्र राजनीति करने के नाम पर आपस में एक दूसरे के खून के pyase  बन रहे हैं -  --इसे क्या चुपचाप स्वीकार जा सकता है? इस संदर्भ में राज्यपाल  नारायणा की चिंता वाजिब है  उन्होंने एकदम सही चिंता व्यक्त की है कि छात्र राजनीति के नाम पर हिंसा का खुला व् बर्बर प्रदर्शन सभ्य समाज के लिये शर्मनाक है/ राजनीति के नाम पर चल रहे रक्तपात को रोकने के लिये सभी को आगे आना पड़ेगा/ हमारा बहुत सीधा - सा सवाल है कि  आखिर कब तक छात्र राजनीति के नाम पर अपनी पढाई- likhaii छोडकर राजनीतिक दलों के मोहरे बने रहेंगे / मैं यह नहीं कहती कि छात्र राजनीति से दूर रहें /  बल्कि मेरा यह मानना है कि छात्रों को बड़ी संख्या में राजनीति में आना  चाहिए ताकि समाज और देश को छात्र शक्ति से एक नई   दिशा मिले और देश के राजनीति में जो सड़ांध आ गई है उसे छात्र शक्ति दूर कर सकें पर यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि छात्र राजनीति  अवश्य  करें पर स्वस्थ राजनीति न कि राजनीतिक मतविरोध के चलते एक दूसरे की हत्या करें , एक दूसरे पर जानलेवा हमला करें / मैं ऐसी राजनीति का पुरजोर विरोध करती हूँ  जो हमारें  युवा ताकत को अंधी खाई की तरफ धकेल रहा है /     छात्र  हमारे समाज की ताकत हैं और हम इस ताकत का  दुरुप्रयोग    होता हुआ देख रहे हैं अभी हाल में कॉलेज व् विश्वविद्यालयओं  में छात्रों के बीच जिस प्रकार की विश्रिन्खालता व् अनुशासनहीनता   बढ़ी है उसी के चलते  जब वे राजनीति के छेत्र में उतरते  हैं तो कॉलेज व् विश्वविद्यालय को  रणछेत्र  बना देते हैं पर यह सोचने वाली बात है कि इस रणछेत्र  में बलि किसकी ली जा रही है ? -  निसंदेह छात्रों की / क्यों छात्रों में राजनीतिक मतान्तर के चलते इतना आक्रोश बढ़ा है ?   इस पर भी मनन करना चाहिए / क्या हम सभी  का दायित्वा नहीं बनता कि  अब हमें चुप नहीं बैठना चाहिए / सिर्फ हमें ही क्यों बल्कि सभी राजनीतिक दलों को अपने विरोध को दरकिनार करके आगे आना पड़ेगा / उन्हें निर्णय करना होगा कि अब वे छात्रों को स्वस्थ राजनीति करने के लिये प्रेरित करेंगे /   आखिर खूनी राजनीति के नाम पर किसको क्या हासिल होगा ? समझ में नहीं आता/ इस खूनी राजनीति में सबकुछ खोना ही खोना है /  अब नहीं चेते तो कब चेतेंगे ?  यहाँ सिर्फ एक के चेतने से काम नहीं चलेगा सबको हाथ से हाथ मिलाकर उठना  और चलना पड़ेगा  क्योकि कल हमारी बारी भी हो सकती है /

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

भाषा आन्दोलन : नव राष्ट्र का जन्म - डॉ. शंकर तिवारी (५)

                             पाकिस्तानी हुकमरान  पूर्वी पाकिस्तान को न  स्वायत्तता   देना चाहते  थे और न उनकी भाषा को सरकारी स्वीकृति जिसके परिमाणस्वरुप अब यह आन्दोलन सड़क पर उतर चुका था/ इसका चरम  रूप उस दिन दिखाई पड़ा जब  ढाका विश्वविद्यालय    के छात्रों द्वारा इस आन्दोलन के समर्थन में निकाले गए जुलूस  पर  पुलिस द्वारा गोली से फायरिंग की गई / यह दिन २१ फरवरी १९५२ था / भाषा का यह आन्दोलन बंगाली जाति के आत्मसम्मान  का प्रतीक था और यह दिन जहाँ एक तरफ शोक व् दुःख का दिन था तो दूसरी तरफ बलिदान  व् गौरव का भी दिन था/ बाँग्ला भाषा के सामान के लिये चार युवक्  गोली खाकर शहीद   हो गए थे / पूरा ढाका शहर  इन चार युवकों - सलाम, बरकत, रफीक और जबबार  के  शहीदी रक्त से लाल हो गया था/ अपनी भाषा के लिये अपने जीवन  को उत्सर्ग कर देना - यकीनन गर्व का विषय था , है और रहेगा/

 अब आन्दोलन का रूख बदल चुका था सिर्फ अपनी भाषा ही बल्कि अब अपने लिये एक नए  राष्ट्र की मांग भी उठने लगी / पश्चिम पाकिस्तान के अत्याचार से मुक्त होने का समय आ चुका था/ चार भाषा प्रेमिओं  का बलिद्दन एक चिंगारी के रूप में सुलगकर क्रांति की बहुत बड़ी लौ बन चुकी थी/ अब आन्दोलन की धार को   कुंद नहीं किया जा सकता/ अंततः १९७१ में यह मुक्ति-पर्व बांग्लादेश के जन्म के साथ संपन्न हुआ/ यह विश्व  इतिहास में एक नजर विहीन  घटना थी / साथ ही बांग्लादेश का जन्म उन लोगों के लिये करारा सबक था जो यह मानकर चल रहे थे कि धर्म के आधार पर विश्व के सभी मुसलमान एक हैं, उनके सांसारिक हित-अहित एक हैं, उनकी बोलचाल, भाषा , तहजीब सब एक जैसा है/ असल में भाषा का सम्बन्ध किसी धर्म से नहीं होता है बल्कि भाषा जातीयता का प्रतीक होती है/ भाषाई अस्मिता के लिये किया गया यह आन्दोलन  विश्व के हर भाषा-प्रेमी को  सदप्रेरित करता है और यह रौशनी देता है कि जब तक  भाषाएँ  जिन्दा रहेंगी तब तक हम जिन्दा रहेंगे / 

भाषा आन्दोलन : नव राष्ट्र का जन्म -- डॉ. शंकर तिवारी ( 4)

अब यह आन्दोलन थमने वाला नहीं था / ११ मार्च, १९४८ को सारे पूर्वी पाकिस्तान में आम हड़ताल  बुलाई गई/ जगह -जगह  जुलूस  निकले गए / नारे  दिए गए /


इसी  हड़ताल में पुलिस ने भी अपनी बर्बरता  का परिचय  दिया /   आन्दोलनकारियों   और भाषा प्रेमियों पर   लाठीचारज  कार्य गया/ इस आन्दोलन की तीब्रता को कम करने के लिये पूर्वी पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नाजिमुदीन  ने ढाका के असेम्बली में अधिवेशन के दौरान  बाँग्ला को सरकारी भाषा और शिक्षा का माध्यम बनाने का  आश्वासन दिया/ इसके बाद  असेम्बली में ६ अप्रैल. १९४८ को इसके लिये एक प्रस्ताव फिर से लाया गया पर स्थित्ति  वही   ढाक के तीन पात/ प्रस्ताव का फिर से विरोध हुआ/ इधर छात्रों और नवयुवकों में  आक्रोश  बढ़ता ही जा रहा था/   भौगोलिक दृष्टि से पूर्व पाकिस्तान और पश्चिम पाकिस्तान में हजारों किलोमीटर की दूरी थी/ उनके बीच में संपर्क के लिये समुन्द्र पथ और आकाश -पथ के अलावा कोई राष्ट नहीं था / पश्चिम पाकिस्तान का ही पूरे  पाकिस्तान पर दबदबा था/ पश्चिम पाकिस्तान वाले पूर्वी पाकिस्तान  को अपना उपनिवेश  समझते थे पूर्वी पाकिस्तान में कच्चे माल का उत्पादन होता था और पश्चिम पाकिस्तान के कारखानों में बाज़ार की जरुरत के मुताबिक उत्पादन होता था इस स्थिति  पर सुहरावर्दी साहेब मजाक में हमेशा कहा करते थे -' The common bondage between east and west pakistan is P.I.A and myself'  दरअसल ' मुस्लिम -मुस्लिम भाई- भाई' - इस नारे के सिवाय पूर्वी और  पश्चिम पाकिस्तान में कोई सेतुबंधन नहीं था/ पूर्वी पाकिस्तान का एक तो शोषण और दूसरा उनकी भाषा की उपेक्षा - पूर्वी पाकिस्तान को  पश्चिम पाकिस्तान से अलग व् स्वतंत्र होने का वाजिब कारण था /

  

भाषा आन्दोलन : नव राष्ट्र का जन्म -- डॉ. शंकर तिवारी ( 3)

   बाँग्ला को सरकारी भाषा का दर्जा दिलाने के प्रस्ताव के  विफल होते ही दूसरे दिन यानी २६ फ़रवरी ,१९४८ को पूर्वी  पाकिस्तान में छात्र -हड़ताल बुलाई गई/ छात्रों ने स्कूल ,कॉलेज,विश्वविद्यालयओं  में होने वाली  क्लासों    का बहिष्कार किया/ जुलूस  में शामिल हुए / अपनी भाषा के समर्थन में नारें  दिए गए / छात्रों का नेतृत्व  कर रहे थे - डॉ. मुहम्मद शाहिद्दुल्लाह / छात्र  नेताओं  में शेख मुजर्र्बिर रहमान , शम्सुल्हाक शौकत  अली , रणन  दासगुप्ता  आदि / इनमें से कुछेक को आन्दोलन करने के जुर्म में जेल में डाल दिया गया था/ भाषा पर मर- मिटने वालों की  तादाद लगातार बढती जा रही थी क्योंकि भाषा केवल ह्रदय के  भावों या आवेग  को ही व्यक्त  नहीं करती बल्कि वह  मनुष्य   के  जातीयता  बोध की भी परिचयक होती है . भाषा जातीयता के बंधन को मजबूत करती है /

भाषा आन्दोलन : नव राष्ट्र का जन्म -- डॉ. शंकर तिवारी ( २)

    १४ अगस्त ,१९४७ में पाकिस्तान  के जन्म के बाद ही पूर्वी  पाकिस्तान की जनता में रोष शुरु हो गया था जब उन्हे  पता चला कि पाकिस्तानी सरकार इस मामले में कट्टर   नीति  अपनाने जा रही है / पाकिस्तान के संस्थापक और प्रथम गवर्नेर  जनरल  मिस्टर . जिन्ना ने आजादी के बाद ही ढाका के ऐतिहासिक   रेसकोर्स   मैदान  में आयोजित विशाल  जनसभा को संबोधित करते हुए यह उदघोषित किया - "urdu and only urdu shall be the state language of pakistan" ऐसी   उदघोषण   से लाजिमी  है कि पूर्वी पाकिस्तान की  बहुसंख्यक   जनता के माथे पर चिंता की   लकीरें पड़नी  ही थी / इसके खिलाफ  अब जनता को कमर कसना था / सबसे पहले सन १९४७ के दिसम्बर  महीने में ' राष्ट्र भाषा संग्राम परिषद् ' का गठन हुआ / अपनी भाषा की अस्मिता के लिये आन्दोलन की रुपरेखा बनने लगी थी / पाकिस्तान के निर्माण के छे महीने बाद पाकिस्तानी असेम्बली के प्रथम अधिवेशन  की बैठक २३ फ़रवरी ,१९४८ को आरंभ  हुई / इसी अधिवेशन में पूर्वी पाकिस्तान के प्रतिनिधि वीरेन्द्रनाथ  दत्त ने एक प्रस्ताव पेश किया - उर्दू व् अंग्रेजी के साथ बाँग्ला भाषा को  भी सरकारी राजकाज की भाषा घोषित किया जाये / तत्कालीन  प्रधानमंत्री  लियाकत  अली इस प्रस्ताव पर काफी क्षब्ध हुए थे / उन्हें  यह भ्रम था कि इससे  पाकिस्तानी जनता के बीच असंतोष पैदा होगा/ वे यह भूल गए थे कि पूर्वी पाकिस्तान की जनता हिन्दू और मुसलमान होते हुए भी भाषाई दृष्टिकोण  से बाँग्ला भाषा की पक्षधर   थी / आंकड़ों के आधार पर सन १९५१ में बोलचाल की भाषा बाँग्ला थी/

                   वीरेन्द्रनाथ  दत्त  का स्पष्ट तर्क था कि केवल  उर्दू व् अंग्रेजी के प्रयोग से पूर्वी पाकिस्तान की जनता को बेहद  मुश्किलातों का सामना करना पड़ेगा / एक साधाराण    किसान  म्नीअओएर्दर मनीओडर  फार्म पर अंकित भाषा को कैसे समझ पायेगा ? जमीन  बेचने व् खरीदने के क्रम में  स्टांप पेपर  पर कितने रुपए की राशि लिखी हुई है ? - यह समझना  मुश्किल होगा / जनता के मन में यह सवाल  बेचैनी  पैदा किए हुए था कि अंग्रेजी को  राजभाषा का अधिकार मिल गया  लेकिन ४ करोड  चालीस लाख  लोगो की  मातृभाषा  बाँग्ला को राजभाषा  के अधिकार से वंचित क्यों कर दिया गया ?
 यदपि वीरेन्द्रनाथ के प्रस्ताव के समर्थन में दो अन्य सदस्यों ने भी  सहमति दर्ज की थी / भूपेंद्र नाथ दत्त  ने इस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा था -   ' ' urban is not the language of any of the provinces constituting the dominion of pakistan.It is the language of the upper few of western pakistan.This opposition to the amendment proves an effort, a determined effort on the part of the upper few of western pakistan at dominatng the state of pakistan.This is certainly not a tendency towards democracy.It is tendency towards domination of the upper few of a particular region of the state."

पर इसके बावजूद २५ फ़रवरी ,१९४८ को राष्ट्रीय असेम्बली में यह प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया /इस प्रस्ताव के खिलाफ मुस्लिम लीग  के सदस्यों  ने राय दी  और यह प्रस्ताव ख़ारिज हो गया/ पूर्वी पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ख्वाजा नाजिम्मुद्दीन  जो ढाका के नवाब  परिवार के उर्दू भाषी संतान थे, ने कहा था - ' पाकिस्तान  के विभिन्न क्षत्रों में संपर्क भाषा के रूप में उर्दू का कोई विकल्प नहीं है/" उर्दू का समर्थन और बाँग्ला को नजरअन्दाज करना -  - यहीं से शुरु हुआ भाषाई अस्मिता का आन्दोलन जिसकी परिणती  के रूप में पाकिस्तान का एक और बंटवारा हुआ और बांग्लादेश अस्तित्व में आया / धर्म के आधार  पर दो मुल्कों का गठन -- कितना असंगत  और तार्किकता से परे था, बांग्लादेश के निर्माण ने सिद्ध कर दिया /

भाषा आन्दोलन : नव राष्ट्र का जन्म - डॉ. शंकर तिवारी

 समाज और भाषा का सम्बन्ध अटूट  होता है तथा दोनों एक दूसरे के परिचायक  भी होते हैं/ समाज के लिये भाषा की उपयोगिता  को स्पष्ट करते हुए प्रेमचंद कहते हैं - " मनुष्य में मेल-मिलाप के जितने साधन हैं, उनमें सबसे मजबूत ,असर डालने वाला रिश्ता भाषा का है / राजनीतिक, व्यापारिक नाते जल्द या देर में कमजोर पड़ सकते हैं और अक्सर टूट जाते हैं लेकिन भाषा का रिश्ता  समय की और दूसरी बिखेरने वाली शक्तियों की परवाह नहीं करता और एक तरह से अमर हो जाता है /" ( प्रेमचंद, साहित्य का उदेश्य , पेज न . -११९)    प्रेमचंद के इस कथन को हम भाषा आन्दोलन के परिमाण स्वरुप  जन्मे राष्ट्र बांग्लादेश    के रूप में फलीभूत पाते  हैं / भाषाई अस्मिता तथा भाषाई एकता का जीवन्त उदाहरण है -  बांग्लादेश /

सन १९४७ में भारतवर्ष दो स्वतंत्र राष्ट्रों में विभक्त  हो गया था / संसार के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण  नहीं मिलता जहाँ बर्षों से एक वतन में बसने वाली  जातियों  की सांप्रदायिक अनुदारता  से उस वतन के दो टुकड़े  कर   दिए गए हों / यह विभाजन धर्म  को केंद्र में रख कर हुआ था / धर्म  के नाम पर जो नया मुल्क बना , वह पाकिस्तान था / अब मुसलमानों के लिये पाकिस्तान बन चुका था / पर इस बंटवारे को  हिन्दुस्तान का अवाम स्वीकार नहीं पाया क्योंकि  हिदुस्तान की आजादी के लिये  हिन्दुओं  और मुसलमानों ने मिलकर कुर्बानियां दी थीं पर इसलिये नहीं दी थीं कि  आजादी के   बाद दंगें  झेलें , एक दूसरे  का गला काटें , अपने घर- बार से विस्थापित होएं / लेकिन सियासती  शतरंज पर चालें  चलीं जा चुकी थीं / लाखों लोगों को विभाजन के नाम पर विस्थापित होना पड़ा / तमाम  विपरीत  परिस्थितिओं  के बावजूद बहुत सारे ऐसे घर - परिवार भी थे जिन्होनें  अपनी माटी से उखाड़ना पसंद नहीं किया/ यह उनका अपनी मातृभूमि के प्रति गहरा प्रेम था/ ' जननी ज्नाम्भुमिश्ये  स्वर्ग दपि गरियशी ' - में आस्था के चलते बहुत से हिन्दू पाकिस्तान में ही रह गएँ / इधर भारत में भी बहुत सारे मुसलमान बंटवारे के बाद पाकिस्तान नहीं गएँ  बल्कि हिदुस्तान  को ही अपना वतन  माना /

भारतवर्ष  में भाषा और धर्म के नाम पर असुरक्षा की भावना  मुसलामानों में नहीं पनप पाई  क्योंकि यहाँ  की सरकारें  अपने तमाम राजनैतिक  प्रतिबद्धताओं     के बवजूद इस बात का ध्यान रखे हुए थीं कि इस देश में किसी भी व्यक्ति को अपने धर्म और भाषा की अभिव्यक्ति का अधिकार बना रहेगा/ पर पाकिस्तान में यह बात पूरी तौर पर लागू  नहीं हो पाई / वहां पर भाषा की समस्या  उठ   खड़ी हुई   /   विशेषकर  पूर्वी पाकिस्तान में जहाँ पर बहुसंख्यक  जनता की मातृभाषा बांगला थी पाकिस्तानी हुकूमत ने दो भाषाओँ  -- उर्दू और अंग्रेजी - को राज भाषा के रूप में स्वीकृति दी थी /   पूर्वी   पाकिस्तान में उर्दू और अंग्रजी बोलने व् समझनेवालों की संख्या बहुत कम थी /वहां की जनता की प्रबल इच्छा थी कि उर्दू और  अंग्रेजी  के साथ साथ बांगला भाषा को भी सरकारी कामकाज के लिये राजभाषा  के रूप में स्वीकृति मिले / 

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

भ्रष्टाचार के दलदल में फंसा हिंदुस्तान ( २)

   डकार जातें हैं ? इन नेतावों को दुबारा चुनाव में चुना नहीं जाना - यह तो हमारे हाथ में हैं/ इसके अलावा हम सभी  को अपने जीवन में भी   शुचिता का पालन करना पड़ेगा तभी हम अपने सामाजिक जीवन में भी शुचिता को  तरजीह दे पायेंगे

भ्रष्टाचार के दलदल में फंसा हिंदुस्तान

   पिछले    कुछ दिनों से  हिंदुस्तान में   भ्रष्टाचार  से जुडी जो ख़बरें   आ रही हैं वे अपने आप में चौकाने वाली हैं तथा विचार करने वाली भी हैं वैसे तो भ्रष्टाचार हिंदुस्तान के लिये कोई नई चीज नहीं है पर हाल ही में इसमें जिस तरीके से बढ़ोतरी  हुई है वह हमें विचलित करता है यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इसके लिये जिम्मेदार सिर्फ नेता नहीं हैं बल्कि   पूरा समाज इसकी  लपेट में हैं   आज भारत सिर से पैर तक  भ्रष्टाचार के दलदल में डूबा हुआ है इस दलदल से आम आदमी दुखी है पर क्या सिर्फ दुखी होने से  भ्रष्टाचार के दलदल से भारत को मुक्ति मिल जाएगी ?  क्या भारत का लोकतंत्र अपने तंत्र की लोलुपता पर सिर्फ अफसोस  जताता रहेगा ? मुझे नहीं लगता कि इस तरीके से चुपचाप बैठ कर इन घटनावों पर मात्र अफ़सोस करके हमारे  दायित्वा की खानापूर्ति हो जाती है  हमें यदि अपने लोकतंत्र के प्रतिनिधिओ की लोलुपता पर अंकुश लगाना है तो हमें इनके खिलाफ  एक सक्रिय प्रतिरोध खड़ा करना होगा बिलकुल उदयप्रकाश की कहानी " और अंत में  प्रार्थना " के नायक डॉ. वाकानकर  की तरह /  क्या हम ऐसा नहीं कर सकते ? क्यों नहीं हम आवाज उठाते ? क्यों हमे यह जरुरी मुद्दा नहीं लगता ? क्यों हम सभी चीजो का दायित्वा मीडिया और न्यायापलिका पर छोड़ देतें हैं ? क्यों हम ऐसे  नेतावों को चुनते हैं जो सत्ता मिलते ही देश और जनता की सम्पति को डा    

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

विकीलीक्स का तहलका

अभी विकीलीक्स के खुलासों    से दुनिया भर में तहलका मचा हुआ है सबसे ज्यादा  तो अमेरिका के माथे पर बल पड़ा हुआ हैं . विकीलीक्स की सूचनाओं से  दुनिया भर के देशों के रिश्तों पर असर तो पड़ेगा ही . इसके जरिये बहुत सारे देशों के चेहरों पर से नकाब उतर चुका है . अमेरिका को माफ़ी तक मांगनी पड़ रही है. पर यह सोचने वाली बात है कि आखिरकार इतने दिनों बाद  विकीलीक्स वेबसाइट पर सूचनाओं को तूफ़ान क्यों उठा  है ? इस तूफ़ान में सिर्फ तमाशा तो देखने को नहीं मिलेगा?